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३८ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका
में 'पाषण्ड' शब्द का 'व्रत' अर्थ किया है, जो यहाँ बहुत ही सुसंगत . लगता है।
अगर पाखण्ड का अर्थ दम्भ या कपट ही यहाँ माना जाए तो सम्यक्त्व के पाँच अतिचारों में 'परपाषण्ड (पाखण्ड) प्रशंसा' और 'परपाषण्ड (पाखण्ड) संस्तव' नामक जो अन्तिम दो अतिचार हैं, उनके पूर्व 'पर' विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता थी? केवल पाखण्ड शब्द से ही काम चल जाता । अतः पाखण्ड या पाषण्ड शब्द का अर्थ यहाँ भी 'दम्भ, कपट करना' शास्त्रसम्मत नहीं है।
___ स्थानांगसूत्र में 'पाषण्ड धर्म' का उल्लेख मिलता है, वहाँ उसका अर्थ किया गया है-'व्रतधारियों का धर्म' ।
प्रश्नव्याकरणसूत्र के द्वितीय संवरद्वार में अणेग पाषण्डिपरिग्गहियं' शब्द का अर्थ किया है-- नाना प्रकार के व्रतधारियों द्वारा अंगीकृत ।'
इन सब दृष्टिकोणों से तथा धर्म के साथ संगति बिठाने की दृष्टि से पाषण्डधर्म का अर्थ 'व्रतधर्म' ही उपयुक्त लगता है। .
व्रतधर्म का अर्थ है-धर्म-पालन करने के लिए दृढ़ निश्चय करना अथवा अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, स्वादेन्द्रिय-निग्रह, आदि जो-जो व्रत, प्रत्याख्यान या नियम धारण किये हों, उन पर दृढ़ रहना।
शास्त्रकारों ने ग्रामधर्म, नगरधर्म और राष्ट्रधर्म का समुचित पालम करने के लिए दृढ़ निश्चय-रूप व्रतधर्म की आवश्यकता स्वीकार की है। .
इसके अतिरिक्त दशवकालिक सूत्र में (श्रमण) शब्द को व्याख्या करते हुए 'पाषण्डी' शब्द 'व्रतधारी' अर्थ में प्रयुक्त किया गया है।
___ पाखण्ड शब्द के 'व्रत' अर्थ की संगति करते हुए आचार्य कहते हैंपाखण्ड की व्युत्पत्ति है-'पापान खण्डयतीति पाखण्डः' जो पापों का खण्डन करता है-पापों का नाश करता है, पाप से बचाता है, वह पाखण्ड है। दूसरी बात, पाखण्डधर्म यानी व्रतधर्म ग्राम, नगर और राष्ट्र में फैलने वाले दम्भ-अधर्म को रोकता है और धर्मभावना जागृत करता है ।
१ पाषण्डं व्रतमित्याहुस्तद्यस्यास्त्यमलं भुवि । स पाषण्डी वदन्त्यन्ये कर्मपाशाद् विनिर्गतः ।।
-दशवै० नियुक्ति १४८ की टीका २ अनेक पाषण्डिपरिगृहीतम् --नानाविधतिभिरंगीकृतम् ।
-प्रश्नव्याकरण द्वि० संवरद्वार