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धर्म के विविध स्वरूप | ३७
- 'राष्ट्र को रक्षा में हमारी रक्षा है, राष्ट्र के विनाश में हमारा विनाश है'-इस राष्ट्रधर्म के मंत्र को हृदय में अंकित करके प्रत्येक राष्ट्र- . वासी को चलना है। स्वयं भगवान् ऋषभदेव ने श्र त-चारित्रधर्म से पहले ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म आदि की स्थापना की थी।
इससे स्पष्ट है कि राष्ट्रधर्म के विना श्रु तचारित्र-धर्म टिक नहीं सकेंगे। अतः थ त-चारित्रधर्म के पालन के लिए प्रथम राष्ट्रधर्म का पालन करना आवश्यक है। ___स्थानांगसूत्र में बताया गया है कि श्र त-चारित्रधर्म का अंगीकार करने वाले साधकों के लिए पांच वस्तुओं का आधार लेना पड़ता है, यथा--- षटकाय, गण, राजा (राज्य या राष्ट्र), गृहपति और शरीर । यहाँ राजाशब्द का तात्पर्याथ है-राज्य या राष्ट्र अथवा राष्ट्रीय व्यवस्था (राज्य प्रबन्ध) । जहाँ राष्ट्रीय प्रबन्ध अच्छा नहीं होता, वहाँ चोरी, हिंसा, भ्रष्टाचार, अनाचार, अत्याचार आदि कुकर्म फैल जाते हैं। ऐसी स्थिति में श्रुत-चरित्र धर्म का समुचित रूप में पालन नहीं हो सकेगा। राष्ट्रधर्म के पालन के बिना राष्ट्रीय सुव्यवस्था अच्छी नहीं हो सकती । राष्ट्र की सुव्यवस्था के बिना साधारण जनता की चोर आदि दुष्टों से सरक्षा नहीं हो सकती, न ही मुनिगण शान्तिपूर्वक अपना श्र त-चारित्रधर्म पालन कर सकते हैं । अतः राष्ट्रधर्म राष्ट्र के प्रत्येक कोटि के व्यक्ति के लिए अत्यावश्यक है।
(४) पाषण्ड धर्म मूल सूत्र में 'पासंडधल्मे' शब्द है, इसके दो रूपान्तर संस्कृत में किये गए हैं--पाषण्डधम और पाखण्ड धर्म । प्रस्तुत में प्रथम रूप ही उपयुक्त लगता है। क्योंकि पाखण्ड शब्द वर्तमान में प्रायः ढोंग, तिंग, दम्भ आदि अर्थों में प्रयुक्त होने लगा है। अतः ‘पाखण्ड' शब्द के इस अर्थ के साथ धर्म का कोई मेल हो नहीं है । भगवान् महावीर को पाखण्ड धर्म बताने की कोई आवश्यकता भी नहीं थी। पाषण्ड शब्द के विभिन्न अर्थ
दशवकालिक सूत्र' के द्वितीय अध्ययन को नियुक्ति की टीका
१ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र प्रथम वक्षस्कार २ 'धम्मस्स णं चरमाणस्स पंच णिस्सा ठाणा पण्णत्ता, तंजहा-छक्काया, गणे, राया, गाहावई, सरीरे ।'
-स्थानांग, स्थान ५, सू. ४४८