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________________ ३६ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका नीति निश्चित करते हैं, उनका उल्लंघन न करना, उनका ठीक ढंग से यथोचित पालन करना भी राष्ट्रधर्म कहलाता है। जिस राष्ट्र में अनेक भाषा, जाति तथा धर्म-सम्प्रदाय के लोग बसते हैं, वहाँ के राष्ट्र स्थविर ऐसे नियम बनाते हैं, जिससे विविध भाषा, वेशभूषा, जाति और धर्म-सम्प्रदाय के लोगों में परस्पर वैमनस्य, संघर्ष, फूट एवं कलह न हो, वे एक राष्ट्रवासी परस्पर भाई-भाई की तरह राष्ट्र में रहे, एक दूसरे के दुःख-सुख में, विवाहादि उत्सवों में सम्मिलित हों, सहयोग दें। राष्ट्रस्थविर राजा और प्रजा (सरकार और जनता) दोनों का प्रतिनिधि होकर दोनों से सम्बन्ध रखता है, इसलिए राष्ट्र की प्रकृति, संस्कृति, सभ्यता, सह्य खानपान, सह्य वेशभूषा, भाषा आदि को दृष्टिगत रखकर ही नियम बनाता है । अतः उन नियमों का पालन करना राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। जो ग्राम्यजन ग्रामधर्म का और जो नागरिक नगरधर्म का पालन नहीं करते, वे अपने राष्ट्र का अपमान और पतन करते हैं। ऐसे ही व्यक्तियों के कारण राष्ट्र आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से विदेशी शक्तियों का गुलाम बनता है। वास्तव में, अगर भारतवर्ष के अधःपतन एवं परतन्त्र होने का कारण ढढे तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि थोड़े से नागरिकों ने नगरधर्म का पालन नहीं किया, इसी कारण राष्ट्रधर्म का लोप हो गया। जो लोग राष्ट्रहित के विरुद्ध कार्य करते हैं, अथवा जो लोग एक राष्ट्र के नागरिक होकर दूसरे राष्ट्र को केवल अपने धर्म-सम्प्रदाय के कारण राष्ट्र की गोपनीय बातें बताते हैं, उसके लिए जासूसी करते हैं, वे राष्ट्र की कब्र खोदते हैं, ऐसे पर-राष्ट्रमुखी लोग प्रायः राष्ट्रद्रोह का कार्य करते हैं। . ___ भारत में जब से राष्ट्रधर्म-पालन के प्रति लोगों में उपेक्षाभाव आया, तब से राष्ट्र की अवनति हुई है । जो लोग अपने राष्ट्र की रक्षा के बदले अपनी व्यक्तिगत रक्षा करना चाहते हैं, वे जहाज में होते हए छेद को बन्द न करके स्वयं बचने की झठी आशा करते हैं। राष्ट्र के प्रति इस प्रकार की उपेक्षा या उदासीनता का कारण राष्ट्रधर्म की महत्ता का अज्ञान है। जननी और जन्म-भूमि दोनों माताएँ हैं। राष्ट्र भी माता के समान है, उस राष्ट्रमाता के प्रति कृतज्ञ न रहकर राष्ट्र की सेवा-भक्ति, सुरक्षा, स्वदेश-गौरव, स्वार्पण की भावना को तिलांजलि देना कथमपि उचित नहीं है।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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