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________________ ३४ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका रह सकता, क्योंकि जीवन की प्राथमिक आवश्यकताएँ अन्न और वस्त्र हैं, जो खेती से निष्पन्न होते हैं, और खेती ग्रामों की प्रधान जीविका है। कलकारखानों में अन्न और वस्त्र के लिए कच्चा माल पैदा नहीं हो सकता। साथ ही नगरों के बिना भी आज ग्रामों की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। इसलिए ग्राम अपने ग्रामधर्म को और नगर अपने नगरधर्म को भूल जायें तो दोनों का पतन अवश्यम्भावी है। शरीर और मस्तिष्क में जितना घनिष्ठ सम्बन्ध है, वैसा ही सम्बन्ध ग्रामधर्म और नगरधर्म में परस्पर है। ग्रामीणजन शरीर के स्थान पर हैं तो नागरिकजन मस्तिष्क की जगह । दोनों की अस्वस्थता का एक दुसरे पर प्रभाव पड़ता है। मस्तिष्क अगर संयोगवश विक्षिप्त या विकृत हो जाए तो वह सारे शरीर को हानि पहुँचाता है। दुर्भाग्य से, वर्तमान में अधिकांश नागरिक अपने नगरधर्म का भान प्रायः भूले हुए हैं, उन्हें अपने नगर की व्यवस्था एवं सुरक्षा का भी भान नहीं रहा। वे ग्रामों की घोर उपेक्षा कर रहे हैं, यह कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं। आज के नागरिक प्रायः नगरधर्म या नगर के प्रति स्वकर्तव्य को भूलकर नाटक-सिनेमा, फैशन, नाचरंग तथा मदिरापान आदि दुर्व्यसनों में अपने समय, शक्ति और धन का दुरुपयोग कर रहे हैं। विवाह आदि प्रथाओं में फिजूलखर्ची करने में अधिकांश नागरिक अपनी शान समझते हैं। आज की राजनीति अधिकांशतः नगर के हाथों में है। राजनैतिक नेता भी प्रायः नगरनिवासी ही अधिक संख्या में हैं । और वे विधानसभा या लोकसभा में जनता के मत से चुने जाने के बाद प्रायः अपनी कीति, लोभ एवं स्वार्थ से प्रेरित होकर जनहित-घातक कानूनों का समर्थन करते देखे जाते हैं । ऐसे लोग ग्रामधर्म और नगरधर्म से कोसों दूर हैं। नगरधर्म-पालक का कर्तव्य है, कि जनहित-विरुद्ध कानूनों का समर्थन न करे, बल्कि सामूहिक रूप से तीव्र विरोध करे । यहो वास्तविक नगरधर्म है ।। विरुद्धरज्जाइकम्मे' (विरुद्धराज्यातिक्रम) का अर्थ है--राज्य द्वारा कृत सुव्यवस्था का उल्लंघन न करना । किन्तु यदि राज्य की सरकार ही अनीति, अन्याय अथवा स्वार्थ से प्रेरित होकर राज्य व्यवस्था को दूषित या चौपट करती हो, या धर्मविरुद्ध राज्य व्यवस्था हो तो उसके विरुद्ध अहिंसात्मक शांतिपूर्ण आन्दोलन करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य हो जाता है। कल्पना करिए-जनता ने मद्य, अफीम आदि मादक द्रव्यों से होने वाली हानियों को समझकर उनका त्याग कर दिया, किन्तु इससे सरकार की आय को धक्का लगा। अब यदि कोई सरकार
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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