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धर्म के विविध स्वरूप | ३३
__जैसे कृषि का मूल खेत को जोतना है, वैसे ही धर्म का मूल ग्रामधर्म की तैयारी करना है। जब तक धर्मवृक्ष के ग्रामधर्मरूप मूल को नीति के जल से नहीं सींचा जाएगा, तब तक सूत्रधर्म और चारित्रधर्मरूप मधुर फल की आशा नहीं रखी जा सकती।
निष्कर्प यह है कि धर्मवृक्ष के ग्रामधर्मरूप मूल को नीति जल से नियमित सिंचन करके सुदृढ़ बना लेने के पश्चात् ही सूत्र-चारित्रधर्मरूप मधुरफल प्राप्त हो सकते हैं । ग्रामों में प्राचीनकाल में सच्ची धमनिष्ठा, पवित्र आस्तिकता, सरलता, सादगी तथा उच्च चरित्रसम्पत्ति थी, उसका कारण ग्राम्यजनों द्वारा ग्रामधर्म का पालन करना था, परन्तु आज उन बातों के भग्नावशेष ही रह गये हैं। इसका कारण भी गहराई से देखा जाए तो ग्रामधर्म का अभाव प्रतीत होगा । आज ग्रामों के लोग ग्रामधर्म को छोड़कर प्रायः स्वार्थ, भय, दैववाद, यंत्र-मंत्र वाला क्रियाकाण्ड, रिश्वत आदि के चंगुल में फंस गए हैं । इसी कारण वे नाना दुःखों से आक्रान्त हैं।
(२) नगरधर्म __ जब ग्राम का जनसमूह अधिक संख्या में बढ़ जाता है, साथ ही सभ्यता, अलंकृत वेशभूषा, सुसंस्कृत भाषा, आदि कुछ ऊपरी विशेषताएँ आ जाती हैं, तब वह ग्राम, ग्राम न रहकर 'नगर' बन जाता है। जिस प्रकार ग्रामों को लक्ष्य करके ग्रामधर्म का विधान किया गया है, उसी प्रकार नगरों को लक्ष्य करके नगरधर्म की योजना की गई है।
यद्यपि प्रत्येक नगर की बाह्य रीति, प्रथा या खान-पान, वेशभूषा आदि की बाह्य संस्कृति भिन्न-भिन्न होती है, तथापि वे नीति-रीतियाँ आदि धर्म से अनुप्राणित हों, तथा जो भी नियमोपनियम या आचार-व्यवहार नगरस्थविरों द्वारा बनाये जाएँ, वे नागरिकों की सुख-शान्ति और सुव्यवस्था में बाधक न हों तभी वे नगरधर्म ही कहलाए जायेंगे।
दूरदर्शी नगरस्थविर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावानुसार नागरिकों के पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक हितों को लक्ष्य में रखकर जो भी धर्मानुप्राणित नीति-नियम बनाते हैं, आचारसंहिता की योजना बनाते हैं, वह सब नगरधर्म है। नागरिकों का यह नैतिक कर्तव्य है कि वे नगर के तथा नगरवासियों के किसी भी हित के विरुद्ध, नगर को हानि पहुँचाने वाली, नगरसुरक्षा के लिए खतरनाक कोई भी प्रवृत्ति न करे ।
एक बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि ग्राम और नगर में अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है । ग्रामों के बिना नगरों का जीवन सुरक्षित नहीं