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३२ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका है; क्योंकि धर्म से ही स्थविरों का जीवन निर्माण होता है और स्थविरों से उस उस धर्म के नीति नियमों का निर्धारण होता है। इन दस धर्मों की क्रमशः व्याख्या इस प्रकार है
(१) ग्राम-धर्म जहाँ साधारण जनसमूह, विशेषतया कृषक जनों का समूह संगठित होकर अमुक सीमित संख्या में बसता हो, उसे 'ग्राम' कहते हैं। ग्रामवासियों के दुःख कष्ट और समस्याएँ दूर करने के लिए, जो धर्मप्रधान व्यवस्था की जाती है, अथवा ग्रामों को लक्ष्य करके ग्रामों की उन्नति, उत्थान, विकास और सुरक्षा के लिए जो नियमोपनियमों की आचारसंहिता या ग्राम्यव्यवस्था का निर्माण किया जाता है, उसे ग्रामधर्म कहते हैं। दूसरे शब्दों में जिस धर्म का पालन करने से ग्राम्य जोवन की सुरक्षा होती है उसकी उन्नति होती है उसे साधारणतया ग्रामधर्म कहा जा सकता है।
ग्राम में अगर चोरी होती हो, तो उसे रोकना, वेश्यागमन, जुभा, व्यभिचार आदि न होने देना, पशहिंसा न होने देना, मुकदमेबाजी, पार्टीबाजी आदि से होने वाली सम्पत्ति की हानि एवं पारस्परिक वैमनस्य का निवारण करना, गाँव की संगठित शक्ति द्वारा गाँव की फूट, असुरक्षा, अन्याय-अनीति आदि दूर करना, गाँव के प्रमुख-ग्रामस्थविर के द्वारा ग्रामहित के लिए बनाये गये नियमों का पालन करना, ग्राम का मुख्य धर्म है।
आज ग्रामों में अज्ञान, अन्धविश्वास अनारोग्य और निर्धनता है, साथ ही शहरों के सम्पर्क के कारण धूम्रपान तथा मद्य, भंग, गाजा, अफीम आदि कई दुर्व्यसनों के कारण गाँवों की व्यवस्था बिगड़ती जा रही है । इस दुव्यवस्था के कारण ग्रामवासी प्रायः अनेक दुःखों से ग्रस्त है। अगर ग्रामीण जन ग्रामधर्म का पालन करें तो ये सब दुःख अनायास ही दूर हो जाएँ। सारांश यह है—ग्रामों की व्यवस्था को दुर्व्यसनों तथा अज्ञान, अन्धविश्वास आदि से दूर रखना ग्रामधर्म है।
ग्राम-वासियों के कर्तव्य एवं नीति नियम, जो कि ग्राम-स्थविरों द्वारा ग्रामों की सुव्यवस्था एवं शान्ति के लिए निश्चित किये गये हों, उनका नाम भी ग्राम धर्म है।
बीज बोने से पहले जैसे खेत जोतना आवश्यक होता है, वैसे ही धर्ममोज बोने के लिए ग्रामधर्म रूपी भूमिका तैयार करना आवश्यक होता है । क्योंकि ग्रामधर्म की भूमिका में से सभ्यता, नागरिकता, राष्ट्रीयता आदि धर्म के अंकुर फूटते हैं।