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धर्म के विविध स्वरूप | २६
सार यह है कि मनुष्य को लौकिक और लोकोत्तर दोनों धर्मों का भलीभांति समन्वय करके पालन करने से ही नैतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक जीवन समृद्ध और सुदृढ़ हो सकता है, तथा मानव जीवन का अन्तिम वास्तविक लक्ष्य - मोक्ष सिद्ध हो सकता है।
प्रस्तुत दस धर्मों में से ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्र धर्म, ये तीन लौकिक धर्म हैं, तथा पापण्ड धर्म, कुल धर्म, गण धर्म संघ धर्म ये चार कथञ्चित् लौकिक धर्म हैं, कथंचित् लोकोत्तर, और श्रुत धर्म, चारित्र धर्म तथा अस्तिकाय धर्म लोकोत्तर हैं ।
लौकिक धर्म आधार : लोकोत्तर धर्म आधेय
यद्यपि ग्राम धर्म आदि लौकिक धर्म सीधे (Direct ) मोक्ष की प्राप्ति के लिए पर्याप्त नहीं हैं, तथापि जिन धर्मों से सीधे (Direct ) मोक्ष की प्राप्ति होती है, उनके लिए ये ग्राम धर्म आदि लौकिक धर्म आधार अवश्य हैं । स्पष्ट शब्दों में कहें तो ग्रामधर्मादि लौकिक धर्म आधार हैं, तो श्रुतचारित्र धर्म आदि लोकोत्तर धर्म आधेय हैं। आधार के अभाव में आधेय किसके सहारे टिकेगा ? पात्र के अभाव में जैसे घी टिक नहीं सकता, वसे ही ग्राम-धर्म, नगर-धर्म, राष्ट्र-धर्म आदि लौकिक धर्मों के आधार के बिना श्रुत चारित्र लोकोत्तर धर्म रूप आधेय टिक नहीं सकते ।
जिस ग्राम, नगर या राष्ट्र में ग्राम धर्म, नगर-धर्म, राष्ट्रधर्म का पालन न होता हो, जहाँ चोरी, लूटपाट, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, अन्यायअत्याचार, अनाचार आदि पाप धड़ल्ले से पनप रहे हों, किसी धर्मयुक्त बात को कोई सुनने को तैयार न हो, ऐसी स्थिति में कोई व्रती सद्गृहस्थ या महाव्रती साधु वहाँ रहकर कैसे अपने लोकोत्तर धर्म का पालन कर सकेगा ? कैसे आत्मसाधना कर सकेगा और किस प्रकार वह अपनी सज्जनता या साधुता की सुरक्षा कर सकेगा ? ऐसे लौकिक धर्म-विहीन दूषित ग्राम, नगर या राष्ट्र में कोई भी श्रमणोपासक वहाँ घर बसाकर स्थायी रूप से रहने की या श्रमण स्थिरवास रहने को तैयार नहीं होगा ।
यद्यपि साधु-साध्वीगण अपने पूर्वाश्रम में पालनीय लौकिक धर्मों की भूमिका को पार करके लोकोत्तर धर्म की भूमिका में आ जाते हैं, उन्हें अब प्रत्यक्ष रूप से लौकिक धर्म का पालन करना नहीं होता, तथापि उन्हें सद्गृहस्थों को लौकिक धर्म-पालन की प्रेरणा देना आवश्यक होता है, उससे विमुख होकर वे रह नहीं सकते, क्योंकि गृहस्थ लोगों द्वारा लौकिक धर्म का पालन सुचारु रूप से होगा, तभी साधुवर्ग लोकोत्तर धर्म का पालन सुचारु रूप से कर सकेगा ।