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२८ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका
(१) ग्रामधर्म, (२) नगरधर्म, (३) राष्ट्रधर्म, (४) पाषण्डधर्म, (५) कुलधर्म, (६) गणधर्म, (७) संघधमं, (८) श्रुतधर्म, (e) चारित्रधर्म और (१०) अस्तिकाय धर्म | 2 इन
धर्मों को प्रमुख रूप से तीन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है - (१) लौकिकधर्म, (२) लौकिक लोकोत्तरधर्म (३) लोकोत्तर धर्म । लौकिक और लोकोत्तर धर्मं
यह एक निर्विवाद तथ्य है जैसे मकान की सुदृढ़ता और स्थायित्व के लिए गहरी से गहरी नींव डाली जाती है, वैसे मानव जीवन रूपी मकान सुदृढ़ता और स्थायित्व के लिए धर्मरूपी नींव (आधारशिला ) गहरी और पुख्ता बनाना आवश्यक है । धर्मरूपी नींव अगर कच्ची रहेगी तो मानवजीवन रूपी मकान अज्ञान, अन्धविश्वास, शंका, कुतर्क, अनाचार और अधर्म आदि के तूफानों से हिलकर धराशायी हुए बिना न रहेगा ।
मकान की नींव को मजबूत बनाने के लिए जैसे - रेत, पानी, सीमेंट, चूना आदि की आवश्यकता होती है, वैसे हो मानवजीवन रूपी मकान की धर्मरूपी नींव को मजबूत बनाने के लिए सभ्यता, संस्कृति, नागरिकता, राष्ट्रीयता, धार्मिक नियमबद्धता, कुलीनता, सामूहिकता, संघशक्ति, एकता आदि लौकिक धर्मों के पालन की सर्वप्रथम आवश्यकता है ।
जैसे शुद्धधर्म की नींव को सुदृढ़ और स्थायी बनाने हेतु लौकिक धर्मों का पालन करना अत्यावश्यक है, वैसे ही ऊपर की चिनाई को मजबूत बनाने हेतु लोकोत्तर धर्मों का पालन करना भी उतना ही आवश्यक है । atra धर्मों का भलीभाँति पालन किये बिना लोकोत्तर धर्मों का पालन करना ऐसा ही है जैसे सीढ़ियों के बिना ऊँचे महल में प्रवेश करने का निष्फल प्रयास करना । जैसे किसी गृहस्थ के सिर पर तो कीमती पगड़ी बँधी हुई हो लेकिन नीचे धोती या लंगोटी भी पहनी हुई न हो तो उसकी स्थिति हास्यास्पद होती है, उसी प्रकार केवल लोकोत्तर धर्म-रूपी पगड़ी बाँधे हुए, किन्तु लौकिकधर्मरूपी धोती या लंगोटी से विहीन गृहस्थ को हास्यास्पद स्थिति होती है ।
१ दसविहे धम्मे पन्नत्ते, तं० - गामधम्मे १, नगरधम्मे २, रट्ठधम्मे ३, पासंडधम्मे ४, कुलधम्मे ५, गणधम्मे ६, संघधम्मे ७, सुयधम्मे ८, चरित्तधम्मे &, अस्थिकायधम्मे. १० । --स्थानांग सूत्र, स्था. १०, सू. ७६०