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________________ धर्म के विविध स्वरूप | २७ अन्तर या द्रव्य क्षेत्रानुसार विभिन्न योग्यता वाले लोगों की अपेक्षा से अथवा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में तदनुरूप धर्माचरण के कारण धर्मों की विभिन्नता देखकर यह कहना उचित नहीं है कि ये धर्म नहीं हैं, अधर्म हैं । पूर्वोक्त कारणों से धर्मों की विभिन्नता को लेकर उन्हें अधर्मं तो कथमपि नहीं कहा जा सकता। अलबत्ता, धर्म-पालकों की कक्षा या भूमिका में अन्तर के कारण धर्माचरण की डिग्री में अन्तर हो सकता है । जैसे एक कुशल एवं अनुभवी वैद्य रोगियों की विभिन्न आयु, प्रकृति, परिस्थिति और रोग का प्रकार देखकर प्रत्येक रोगी को उसके रोग आदि के अनुरूप औषध अमुक-अमुक मात्रा में देता है, तभी उसके रोग का निवारण होता है । वह सभी रोगियों की एक ही दवा, अथवा एक ही प्रकार के सभी रोगियों को भी समान मात्रा में दवा नहीं देता । उसो प्रकार भवरोग के कुशल एवं केवलज्ञानी - केवलदर्शी, वीतराग - वैद्य भी संसार के सभी प्राणियों को, विशेषतः समस्त मनुष्यों को एक ही प्रकार की धर्मरूपी औषपि नहीं देते और न ही जन्म-मरण रूप संसार के कारणभूत एक ही प्रकार के कर्म-रोग को मिटाने की धर्मरूप औषध समान मात्रा में देते हैं । 1 यही कारण है कि शुद्ध धर्म और उसके अंग समान होते हुए भी वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर भवव्याधिभिषग्वर्यों ने प्राणियों को शुद्ध धर्म के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भूमिका की अपेक्षा से विभिन्न रूप बताए हैं। विभिन्न प्रकार की योग्यता वाले लोगों के लिए उनकी धर्मदेशना भी विभिन्न प्रकार की रही है ।" जैसे सर्वविरति साधुओं के लिए अनगारधर्म बताया, तो देशविरति श्रावकों के लिए आगारधर्म । साधुओं में भी जिनकल्पी, स्थविर-कल्पी, प्रतिमाधारी आदि साधुओं के पृथक्-पृथक् धर्मों का निरूपण किया गया है | श्रावकों में सम्यक्त्वी, अणुव्रती, द्वादशव्रती, प्रतिमाधारी आदि के धर्म पृथक्-पृथक् हो जाते हैं । सम्यग्दृष्टि में भी नीतिनिष्ठ, मार्गानुसारी, नैष्ठिक, पाक्षिक आदि कोटियाँ हैं । दस प्रकार के धर्मों का स्वरूप यही कारण है कि श्रमण भगवान् महावीर ने स्थानांगसूत्र में द्रव्य क्षेत्रादि के अनुसार धर्मपालकों को विभिन्न कक्षाओं को देखकर धर्म के दस प्रकार बताये हैं, वे इस प्रकार हैं १ समदर्शी आचार्य हरिभद्रसूरि ने इसी तथ्य का समर्थन करते हुए कहा है'चित्रा तु देशनैतेषां स्थाद् विनयानुष्ठानतः । यस्मादेते महात्मानो, भवव्याधिभिषग्वराः ॥
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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