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धर्म के विविध स्वरूप | २५
उत्साह, श्रद्धा, संस्कार आदि में तारतम्य होने से उनकी भूमिकाएँ पृथक् पृथक होना स्वाभाविक है ।' तदनुसार उनकी वृत्ति प्रवृत्ति में महान् अन्तर पाया जाता है । अतः इन सभी जीवों - विशेषतः मनुष्यों के लिए आचरणीय धर्म का एक ही रूप कैसे संभव हो सकता है ?
धर्म के विभिन्न रूपों के होने में क्षेत्रीय ( ग्राम, नगर, प्रान्त, राष्ट्र आदि की) पृथक् पृथक परिस्थिति भी कारण है । सभी क्षेत्रों की परिस्थिति सदैव एक सी नहीं रहती । उदाहरणार्थ - एक धर्म जिस रूप में भारत राष्ट्र में पाला जाता है, उस रूप में चीन, जापान, रूस या अमेरिका में पाला नहीं जा सकता और जिस रूप में चीन आदि राष्ट्रों में पाला जा सकता है, उस रूप में भारत में नहीं पाला जा सकता । भौगोलिक परिस्थिति के कारण उसमें अवश्य ही कुछ अन्तर दृष्टिगोचर होगा ।
प्रणाम.
उदाहरणार्थ - - प्रणाम, प्रार्थना और पूजा ये धर्म के अंग हैं । परन्तु प्रार्थना और पूजा करने के ढंग, तरीके या परम्पराएँ या रूप विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न प्रकार के हैं । केवल प्रणाम करने की रीतियां ही इस विश्व में इतनी भिन्न हैं, कि वे एक दूसरे से नहीं मिलतीं । इसी प्रकार अन्य व्यवहारों में भी भिन्नता है, फिर भी धर्म को सबके साथ अनुस्यूत करने के कारण उन विभिन्न प्रथाओं को धर्म का रूप मान लिया जाता है ।
आचरणीय धर्म के विविध रूप होने में काल का भी बहुत बड़ा हाथ है । चतुर्थ आरे में धर्मपालन का जो रूप था, पंचमकाल में वह रूप नहीं रह सका। भगवान् पार्श्वनाथ के युग में चातुर्याम धर्म के पालन में ही पंच- महाव्रतों का पालन गतार्थ हो जाता था, किन्तु भगवान् महावीर ने अपने युग में साधकों के मनोभाव, बल, उत्साह आदि देखकर साधकों के लिए पंच महाव्रतों और छठे रात्रिभोजनविरमणव्रत का विधान किया ।
इसी प्रकार महाव्रतों और तदनुरूप समाचारी के पालन का जो रूप भगवान् महावीर के युग में था, उसके पश्चात् उत्तरोत्तर कालक्रम से महाव्रतों के पालन के रूप में परिवर्तन होता गया ।
इस प्रकार काल के अनुसार भी धर्म के रूप में अन्तर पड़ता है । आद्य शंकराचार्य ने तो यहाँ तक कह दिया है कि जिस देश या काल में जो
(क) दव्वं खेत्तं कालं भावं च विष्णाय ...
- आचारांग प्र. श्र..
(ख) 'बलं थामं च पेहाए, सद्धामारुग्गमप्पणो ।
खेत्तं कालं च विन्नाय, तहप्पाणं निरंजए ।' – दशवैकालिक अ. ८ गा. ३५
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