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२४ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका
मुख्यतया इन दस कारणों से शुद्ध धर्म की प्राप्ति और उसकी स्पर्शमा से जीवन में सदुद्देश्य की उपलब्धि अत्यन्त दुष्कर है । एक ही धर्म के विविध प्रकार क्यों ?
धर्म का सर्वांगीण स्वरूप और उसकी आवश्यकता, उपयोगिता, शक्ति और महिमा को जान लेने के बाद भी यह जानना शेष रह जाता है, कि धर्म- - शुद्ध धर्म का स्वरूप सिद्धान्त आदि एक होते हुए भी उसके विभिन्न रूप और प्रकार क्यों दृष्टिगोचर होते हैं ?
इस प्रश्न का समाधान यह है कि यह कोई नियम नहीं कि सत्य का प्रकाश एक ही तरह से हो, भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में विविध प्रकार से भी प्रकाश हो सकता है, और होता है । अनेकान्तवाद के सापेक्ष सिद्धान्त में एक सत्य को विभिन्न अपेक्षाओं से जब प्रकाशित करना होता है तो विभिन्न प्रकार से उसकी अभिव्यक्ति की जाती है ।
वेदों में भी कहा है – 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति'- - 'एक ही सत्य को विद्वान् भिन्न-भिन्न प्रकार से कहते हैं।' इसी बात को अन्य शब्दों में कहना हो तो यों कह सकते हैं - सिद्धान्त नहीं बदलते, परन्तु उनसे सम्बन्धित क्रियाएँ बदल जाती हैं । जैसे - मनुष्य का हृदय तो एक ही होता है, अर्थात् उसके हृदय में तो धर्म के अहिंसा, सत्यादि या क्षमा, मैत्री, दया आदि सिद्धान्त तो एक-से ही होते हैं, किन्तु सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक, पारिवारिक आदि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रयोग करते समय उस उस क्षेत्र की यथायोग्य भूमिका के अनुसार उसे विभिन्न प्रक्रिया अपनानी पड़ती है । एक ही मनुष्य विविध जीवन क्षेत्रों में धर्म का विविध रूप में सक्रिय आचरण करता है ।
दूसरी दृष्टि से विचार किया जाए तो एक ही शुद्ध धर्म के विभिन्न बाह्य रूपों के निर्माण होने में जैनधर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को मुख्य कारण मानता है । जैनधर्म का यह कथन है कि सभी जीव संसारी अवस्था में द्रव्य की अपेक्षा समान नहीं होते, क्योंकि उनके विकास, उम्र, आरोग्य, बल,
(ख) आहच्च सवणं लद्ध ं सद्धा परमदुल्लहा । सोच्चा नेयाज्यं मग्गं बहवे परिभस्स || || (ग) सुइच लद्ध सद्ध ं च वीरियं पुण दुल्लहा । बहवे या मणाविनो एणं पडिवज्जए ॥ १० ॥
? 'Principles are not changed but practice is changed.'
- उत्तरा० भ.३