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धर्म के विविध स्वरूप | २३ स्थानांगसूत्र में बताया गया है-'महारम्भ और महापरिग्रह, इन दो कारणों से व्यक्ति केवलिप्राप्त धर्मश्रवण का लाभ नहीं ले सकता।
बहुत से लोगों को धर्मश्रवण का लाभ तो मिलता है, लेकिन धर्म स्थान में धर्मश्रवण करने हेतु आकर भी धर्मोपदेश के समय नींद लेने लगते हैं, अन्यमनस्क होकर धर्मश्रवण करते हैं, उनका मन सांसारिक बातों में घूमता रहता है. वे अनिच्छा से आते हैं और धर्मोपदेश के समय गप्पै लगाने लगते हैं।
___ इस प्रकार उनके द्वारा किया गया धर्मश्रवण भी निरर्थक और अश्रवण-सा हो जाता है। ऐसे श्रोता केवल प्रथापालन करने के लिए धर्मस्थान में आते हैं, और जड़वत् बैठकर धर्मश्रवण करते हैं। श्रवण करने के वाद न तो वे मनन-चिन्तन कर पाते हैं, न ही उसके अनुसार कुछ आचरण करने का प्रयत्न करते हैं । ऐसे लोगों को धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? (8) शुद्ध श्रद्धान
. कई लोग धर्मश्रवण तो करते हैं, लेकिन उनका धर्मश्रवण श्रद्धा रहित होता है, वे शास्त्र की प्रत्येक बात में शंका-कुशंका करने लगते हैं। उनका श्रद्धारहित शास्त्र-श्रवण राख पर लीपने जैसा निरर्थक होता है । धर्म पर शुद्ध एवं दृढ़ श्रद्धान के बिना धर्म उनके जीवन में जरा भी नहीं उतरता। फलतः वे धर्म प्राप्ति से बहुत दूर रहते हैं। (१०) धर्मस्पर्शना
धर्म पर श्रद्धा रखने वाले सम्यग्दृष्टि जीव तो चारों गतियों में पाए जाते हैं, लेकिन पूर्णरूप से धर्म की स्पर्शना (धर्माचरण) करने वाले केवल मनुष्यगति में ही पाए जाते हैं। मनुष्यों में भी अधिकांश मनुष्य ऐसे होते हैं, जो पूर्वोक्त सभी साधनों को प्राप्त करके शुद्ध धर्माचरण, धर्मस्पर्शना से वंचित रह जाते है । वे या तो मोहवश सांसारिक भोग-विलासों में फंस जाते हैं, अथवा वे कुटुम्बीजनों के मोह में ग्रस्त हो जाते हैं, अथवा महारम्भमहापरिग्रह में फंसने से उनकी बुद्धि पर इतना गाढ़ आवरण चढ़ा रहता है कि वे धर्म की स्पर्शना नहीं कर सकते, धर्माचरण में पुरुषार्थ करने से वे कतराते हैं।
१ 'दोहिं ठाणेहिं जीवा केवलिपण्णत्तं धम्मं न लभेज्ज सवणयाए-महारंभेण चेव महापरिग्गहेण चेव ।'
-स्थानांग. स्थान २ २ (क) माणुस्सं विग्गहं लद्ध सुई धम्मस्स दुल्लहा ।
जं सोच्चा पडिवज्जति तवे खंतिमहिंसयं ।।८।। (contd.)