________________
धर्मं के विविध स्वरूप | १६
एवं निराश्रित एवं असहायजनों के लिए एक मात्र धर्म ही नित्य शरणभूत है । '
संसार के जितने भी पदार्थं एवं व्यक्ति हैं, वे मनुष्य को शरण नहीं दे सकते । न धन, न परिजन, न राज्य, न ऐश्वर्य, न सुखभोग के साधन, न सैन्य, न मित्र, न शरीर और न ही अपनी बुद्धि, यहां तक कि कोई भी कुछ भी शरण नहीं दे सकते । संसार दुःख की ज्वालाओं से चारों ओर धांय धांय करके जल रहा है । कहीं भी सुख-शान्ति नहीं । झौंपड़ी वाले अपने दुःखों से व्याकुल हैं और महल वाले अपनी कठिनाइयों - परेशानियों से चिन्तित - व्यथित हैं । दरिद्र अपनी सीमा में दुःखी हैं तो धनाधोश अपनी सीमा में दुःखी हैं। सभी मनुष्य असहाय, निरुपाय और निराश्रित हैं । किसकी शरण में जाएँ ? मानव के देखते ही देखते मृत्यु धर दबोचती है, बुढ़ापा आ घेरता है, उस समय विवश जीवात्मा को कौन शरण देता है ? कौन बचाता है ? एक मात्र धर्म ही जीवों को शाश्वत शरण दे सकता है, रक्षण कर सकता है ।
. नीतिकार भी स्पष्ट कहते हैं - मृत्यु के समय धन तिजोरी में बन्द पड़ा रह जाता है, पशुधन बाड़े में बन्द खड़ा रहता है, नारी घर के दरवाजे तक और मित्रजन श्मशान तक आते हैं । कोई भी उस समय जीव को शरण नहीं दे सकता । केवल धर्म ही उस समय शरण देता है । धर्म की शरण में आने पर ही मनुष्य को सुख-शांति मिलती हैं। मोहमाया में व्याकुल आत्मा का उद्धार और कल्याण धर्म की शरण में आने पर ही हो सकता है ।
1
इस पर से धर्म की अचिन्त्य शक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है । धर्म की अपार शक्ति के परिचायक जैनशास्त्रों और ग्रन्थों में सैकड़ों उदाहरण मिलते हैं ।
धर्म की महिमा
धर्म की महिमा के सम्बन्ध में क्या कहा जाए ? जो व्यक्ति धर्म पालन करते हैं, जोवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म का शुद्ध अन्तःकरण से आचरण करते हैं, वे जानते हैं कि धर्म की कितनी महिमा और गरिमा है। मनुष्य व्यों
१
ख
उत्तराध्ययन सूत्र अ. २०, गाथा २२ से ३१ तक व्यसनशतगतानां क्लेशरोगातुराणां, मरणभयहतानां दुःखशोकार्दितानाम् । जगति बहुविधानां व्याकुलानां जनानाम् शरणमशरणानां नित्यमेको हि धर्मः ॥