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________________ १८ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका हैं । भारतीय परम्परा में धर्म की उत्पत्ति का मुख्य कारण जन्म-मरणादि की दुःख परम्परा से मुक्ति की अभिलाषा है । धर्म की शक्ति धर्म की शक्ति अचिन्त्य है, अपरिमित है । धर्म साधारण से साधारण व्यक्ति को महापुरुष बना सकता है और हत्यारे, चोर, डाकू, व्यभिचारी और वेश्यागामी पापी को संत-महात्मा के पद पर आसीन कर सकता है । अमरकोश के प्रसिद्ध टीकाकार भानुजी दीक्षित कहते हैं - धरति विश्वfafa धर्मः ' जो विश्व को धारण करता है, वह धर्म है । विश्व का धारण, पोषण और रक्षण करने तथा समाज को सुखमय बनाने एवं प्राणियों को जन्म-मरणादि की दुःख - परम्परा से मुक्त कराने की शक्ति अगर किसी में है तो धर्म में ही है ।' दीपक जैसे अन्धकार-समूह का नाश कर देता है, अमृतबिन्दु विष को निष्प्रभावी कर देता है, वैसे ही धर्म अमंगल और पाप के पुरंज का नाश कर देता है । इसीलिए महापुरुषों ने धर्म की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा है- धर्म सर्वोत्कृष्ट मंगल है - पापनाशक है । धर्म ही समस्त मंगलों का मूल है । वही सर्व मंगलों का मंगल है और सर्वकल्याण कारक है । इसी प्रकार शुद्ध आत्मतत्त्व रूप उत्तम सिद्ध पद और उत्तम अरिहन्त वीतरागपद की प्राप्ति के लिए एक मात्र साधन अहिंसा - सत्यादि अथवा क्षमा, समता, वीतरागता आदि उत्तम धर्म है । धर्म के द्वारा ही अरिहन्त, सिद्ध और साधु पदों को उत्तमत्व प्राप्त है । धर्म की शक्ति दो प्रकार से प्रकट होती है- एक तो वह आपदग्रस्त व्यक्तियों का रक्षण करता है, शरण देता है । दूसरे, वह सुख की प्राप्ति कराता है। एक आचार्य ने धर्म की इस द्विविध शक्ति पर सुन्दर प्रकाश डाला है— सैकड़ों कष्टों में फँसे हुए क्लेश और रोग से पीड़ित, मरणभय से हताश, दुःख और शोक से पीड़ित व्यथित, तथा जगत् में अनेक प्रकार से व्याकुल १ जरा-मरण वेगेणं वज्झमाणाण पाणिणं । धम्म दीवो पट्ठा गई सरणमुत्तमं । २ (क) धम्मोमंगलमुक्किट्ठे । (ख) 'सर्वमंगलमांगल्यं सर्वकल्याणकरणम् ।' - उत्तराध्ययन अ. २३ गा. ६८ — दशवैकालिक अ. १ गा. १
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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