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________________ धर्म के विविध स्वरूप १३ जिन्हें पैट भरने के लिए अन्न और तन ढाँकने के लिए वस्त्र नहीं मिलता, उनकी बात जाने दीजिए, जो धनाढय हैं, साधनसम्पन्न हैं, वे भी किसी न किसी अभाव से---दुःख से पीड़ित हैं। निधन धन के लिए छटपटाते हैं और धनवानों को धन की तृष्णा चैन नहीं लेने देती। निःसन्तान सन्तान के लिए रोते हैं और सन्तान वाले भरण-पोषण के लिए या कुसन्तान होने से चिन्तित हैं। किसी का पुत्र मर जाता है या किसी की पुत्री विधवा हो जाती है तो वह दुःखी है। कोई पत्नी के बिना दुःखी है तो कोई कूभार्या मिलने के कारण दुःखी है। इस प्रकार सारा संसार किसी न किसी दुःख से दुःखी है और अपनी-अपनी बुद्धि तथा रुचि-प्रवृत्ति के अनुसार दुःखनिवारण के लिए प्रयत्न करता है, फिर भी दुःखों से छुटकारा नहीं होता। अधिकांश मनुष्यों का जीवन सुख की चाह को पूरा करने में व्यतीत हो जाता है, फिर भी उनकी सुख की चाह पूर्ण नहीं होती, इसका क्या कारण है ? ___ भारतीय संस्कृति एवं धर्म के उन्नायकों ने इसका समाधान इस प्रकार किया है—सुख के तीन साधन माने जाते हैं.-१. धर्म, २ अर्थ और ३. काम । इनमें से धर्म ही सुख का मुख्य और उत्कृष्ट साधन है, बाकी के दोनों साधन गौण हैं; क्योंकि सर्वप्रथम तो शुद्ध धर्माचरण के बिना अर्थ और काम की प्राप्ति ही कठिन है । कदाचित् इनकी प्राप्ति हो भी जाय तो भी अधर्म-अनीतिपूर्ण साधनों से उपार्जित अर्थ और काम सुख के बजाय दुःखों के ही कारण बनते हैं। उदाहरणार्थ-चोरी से धन कमाने वालों और परस्त्रीगामियों को देख लीजिए; इन कामों में वे सखेच्छा से प्रवृत्त होते हैं; परन्तु उस धन और काम-भोग से उन्हें कितना सुख मिलता है, यह उनकी अन्तरात्मा ही जानती है । सन्तोष के बिना तृष्णा की ज्वाला में जलते हुए मनुष्यों को सुख का लेश भी नहीं मिलता है। __ इसी प्रकार काम-भोग की लालसा में पड़कर काम-भोग के साधन-- शरीर, इन्द्रियाँ आदि को जर्जर कर देने वाले क्या कभी सुखी हो सकते हैं ? फिर अर्थ और काम, ये दोनों सदा ठहरने वाले नहीं हैं, नश्वर हैं, तब वे उन मनुष्यों को स्थायी और स्वाधीन सुख कैसे दे सकते हैं ? परन्तु आज लोगों की यह भ्रमपूर्ण मान्यता बन गई है कि अधिकाधिक सम्पत्ति और भोगोपभोग के विविध साधनों से सम्पन्न होने पर मनुष्य सुखी होता है, उसे लोग आदर देते हैं. समाज में उसकी प्रतिष्ठा होती है। फिर उनकी देखा-देखी क्या मूख और विद्वान्, क्या ग्रामीण और क्या शहरी सभी अर्थ और काम के लिए भरसक पुरुषार्थ करते हैं।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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