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१२ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका
शनैः-शनैः आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच सकते हैं, स्वेच्छा से वे अपने कर्तव्य का पालन करते हैं. समय आने पर वे दूसरों के जीवन की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान भी कर सकते हैं, सेवा, दया, क्षमा, मैत्री आदि का सक्रिय आचरण करके अपनी आत्म-शक्ति का परम विकास कर सकते हैं । उत्तरोत्तर उन्नत भूमिकाओं (गुणस्थान श्र ेणियों) का स्पर्श करके वे केवलज्ञान, वीतरागता, क्षीणमोहता एवं समस्त कर्मक्षय क्षमता प्राप्त करके मोक्ष - महालय में भी प्रविष्ट हो सकते हैं ।
अतः जो मनुष्य आदर्श, उत्तम और अच्छा जीवन जीना चाहते हैं, धर्माराधन के बिना वे एक कदम भी नहीं चल सकते । पद-पद पर एवं श्वास- श्वास में उन्हें धर्म को आवश्यकता रहेगी। यही कारण है कि जैसे भूतकाल में धर्म की आराधना करके लाखों-करोड़ों प्राणी संसार से तर चुके वैसे वर्तमान में भी करोड़ों मानव संसार-सागर से पार होने के लिए किसी न किसी रूप में धर्माराधना कर रहे हैं ।
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अगर धर्म की आवश्यकता न होती तो प्रागैतिहासिक काल से - भगवान् ऋषभदेव के युग से धर्म का प्रवत्तन ही क्यों होता ? अतः यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि कुल, जाति, गण, ग्राम, नगर, राष्ट्र, प्रान्त, समाज आदि की सुव्यवस्था, सुरक्षा, सुख-शान्ति आदि के लिए प्रत्येक युग
धर्म की आवश्यकता रही है और रहेगी । अगर व्यक्ति, कुल, गण, जाति, राष्ट्र, समाज आदि के जीवन से धर्म विदा हो जाए तो एक दिन भी उनकी व्यवस्था नहीं चल सकती । इसीलिए वेदों में कहा गया है-.
धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा
धर्म समग्र विश्व का आधार है, प्रतिष्ठान है । धर्म के बिना कोरी राज्यशक्ति से या समाज - प्रभावक्षमता से विश्व का तन्त्र एक दिन भी चलना कठिन है ।
एक आचार्य ने तो यहाँ तक कह दिया है कि पुष्प में सुगन्ध न हो, मिश्री में मिठास न हो, अग्नि में उष्णता न हो, घृत में स्निग्धता न हो तो उनका क्या स्वरूप बच रहेगा? कुछ भी तो नहीं; उपर्युक्त सभी पदार्थ निःसार, निःसत्त्व कहलाएँगे । ठीक यही दशा धर्म - रहित मानव की है । धर्म के बिना मानव जीवन प्राणरहित शब जैसा है ।
धर्म की उपयोगिता
यह एक अनुभवसिद्ध तथ्य है कि इस जगत् में सभी प्राणियों की प्रवृत्ति सुख के लिए होती है, परन्तु सुख - प्राप्ति के लिए अहर्निश इतनी दौड़-धूप करने पर भी संसार के सभी प्राणी दुःखी क्यों हैं ?
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