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धर्म के विविध स्वरूप | ११
जाएगा । नोतिकारों ने तो कह ही दिया है कि मनुष्य और पशु की आकृति और अंगोपांगो में भिन्नता होने पर भी, आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि संज्ञाओं में पशुओं के समान हैं, इसलिए मनुष्य में अगर धर्म न हो तो पशु और मनुष्य में कोई अन्तर नहीं है। दोनों के हृदय' धर्मविहीन होने से एक-से हैं। बल्कि हिंसा आदि कई पापों से धर्मविहीन मनुष्य पशुओं से भी निकृष्ट बन जाता है। धर्मविहीन मनुष्य दानवों के समान क्र रहृदय हो जाता है, उसके मन में हिंसा आदि पापों का आचरण करते समय कोई संकोच, विचार या विवेक नहीं होता।
निष्कर्ष यह है कि विश्व के मानवों में निहित पाशविक तथा दानवीय वत्ति को तथा उसके कारण उनके मन में उठने वाले हिंसादि पाप भावों को रोकने और अहिंसा आदि की वृत्ति स्थायी रूप से जगाने का कार्य धर्म करता है। धर्म का दायरा कर्तव्य से अत्यधिक विशाल है। कर्तव्य के दायरे में तो मनुष्य उतना ही करता है, जितना दूसरे ने उसके लिए किया है अथवा सामाजिक एवं राजनीतिक विधि-विधानों के अनुसार उसके लिए उत्तरदायित्व निश्चित किये गये हैं; किन्तु धर्म के दायरे में मनुष्य कर्तव्य से भी ऊपर उठकर अज्ञात, अपरिचित एवं अपकारी के प्रति भी अहिंसा, मंत्री, सेवा, दया, क्षमा आदि धर्म-भावों का सक्रिय आचरण करता है। धर्म में किसी प्रकार का स्वार्थ, सौदेबाजी, कामना, यश-कीर्ति की भावना, प्रलोभन या भय की प्रेरणा नहीं होती। शुद्ध धर्म का आचरण निःस्वार्थ, निष्काम, निर्निदान, दण्डादि शक्तियों से अप्रेरित सहज-स्फुरित होता है ।
इससे भी आगे बढ़कर धर्म मानव को आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा देता है । धर्म के द्वारा मनुष्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र की पराकाष्ठा पर पहुँच कर अपने अन्तिम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। यह कार्य राज्य की दण्ड-शक्ति या समाज की प्रभावक्षमता का कतई नहीं है।
- इन सब महत्त्वपूर्ण कारणों से धर्म की विश्व को नितान्त आवश्यकता है।
धर्म : मानव-जीवन का प्राण यह निर्विवाद सत्य है कि जो मनुष्य धर्म का यथाविधि आराधन एवं आचरण करते हैं, वे सुसंस्कारी (और सभ्य बनकर
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१ आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीना पशुभिः समानाः ॥
-हितोपदेश