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________________ १० | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका इसके पश्चात् प्रभाव क्षमता समाज संस्था का आधार है । समाज में रहकर मनुष्य भय और प्रलोभन दोनों प्रकार के प्रभाव से हिंसा आदि पापकृत्य करने से प्रायः रुकता है । समाज की प्रभाव क्षमता मनुष्यों को बाँधती है । परन्तु वह भी भय और प्रलोभन पर आधारित मानसिक अनुभूति की स्थूल दिशा है । इसमें और दण्ड शक्ति में स्थायित्व नहीं है और न ही मनुष्य स्वतन्त्र रूप से विचार और विवेकपूर्वक हृदय की सहज वृत्ति से प्रेरित होकर हिंसादि अपराधों से रुकता है या अहिंसादि का पालन करता है। इसे वास्तविक रूप में अहिंसादि धर्म का पालन भी नहीं कहा जा सकता है। अगर इसे अहिंसादि का पालन कहें तो एक कसाई या चोर को जब तक जेल में बन्द कर रखा है, तब तक वह जीवहिंसा या चोरी नहीं करता, तो क्या इससे उसे अहिंसावती या अचौर्यव्रती कहा जा सकेगा ? कदापि नहीं । स्थायी रूप से राज्य सकती, उसे धर्म कर इसीलिए धर्म की आवश्यकता है। जो कार्य की दण्ड-शक्ति या समाज की प्रभाव क्षमता नहीं कर सकता है । धर्म मनुष्य के हृदय की सहज वृत्ति है । एक पापी से पापी, हिंसक या चोर आदि व्यक्ति भी जब धर्म को स्वीकार कर लेता है, हिंसा, चोरी आदि पापों का स्वेच्छा से त्याग (प्रत्याख्यान) कर लेता है, तब वह अपने प्राणों पर खेलकर भी त्याग किये हुए हिंसा आदि पापों को जीवन में कदापि नहीं अपनाता | धर्म मनुष्य का हृदय परिवर्तन करता है, वह शक्ति के दबाव और बाहरी प्रभाव से रिक्त मानस में आत्मौपम्य भाव जगाता है । व्यक्ति जब अन्तर की सहज स्फुरणा से हिंसा आदि को सर्वथा तिलांजलि दे देता है, वही हृदय परिवर्तन है, जिसे धर्म के सिवाय कोई नहीं कर सकता । विश्व के इतिहास में ऐसे पतितों और पापियों के सैकड़ों उदाहरण मिलेंगे, जिन्होंने धर्म का अवलम्बन लेकर अपने जीवन के कँटीले - कँकरीले मार्ग को बदल दिया, वे सन्मार्ग पर आगए और जगत् के इतिहास में परम धार्मिक के रूप में अमर हो गए। यही कारण है कि विश्व के प्रत्येक राष्ट्र के मानव को स्थायी रूप से सत्पथ पर चलाने के लिए शुद्ध धर्म की आवश्यकता प्रत्येक काल में रही है, आज भी है और सदा रहेगी । अगर धर्म मानव जीवन में नहीं होगा, तो मनुष्य मानवभक्षी, बर्बर, पापाक्रान्त, हत्यारा, व्यभिचारी, चोर आदि होकर पशुओं से गया - बीता हो
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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