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धर्म के विविध स्वरूप | C
फल विषयक शुद्ध आस्था की जड़ें मजबूत कर दीं - 'स्वर्ग के सुख परोक्ष हैं, उनके बारे में तुम्हें विचिकित्सा हो सकती है; मोक्ष का सुख तो उनसे भी परोक्ष है, उसके विषय में तुम्हें सन्देह हो सकता है; किन्तु धर्म से होने वाला शान्ति ( प्रथम ) का सुख तो प्रत्यक्ष है, इसे प्राप्त करने में तुम स्वतन्त्र हो, यह स्वाधीन सुख है और इसे प्राप्त करने में अर्थव्यय भी नहीं करना पड़ता किन्तु समता-सरिता में डुबकी लगाने से प्राप्त होता है । " भगवद्गीता में भी इसी तथ्य का समर्थन किया गया है
'जिनका मन समताधर्म (साम्य) में स्थित हो गया, समझ लो, उन्होंने यहीं संसार को जीत लिया । २
धर्म की आवश्यकता
वर्तमान युग में पश्चिम के भोगवाद, साम्यवाद और नास्तिकवाद के प्रचार से प्रभावित बहुत से लोग यह प्रश्न किया करते हैं कि धर्म की आवश्यकता ही क्या है ? धर्म को न माना जाए तो क्या हानि है ? ऐसे लोग यह तर्क देते हैं कि जो काम धर्म करता है, वही कार्य राज्य की दण्डशक्ति से हो सकता है । सरकारी कानून बना दिया जाए कि हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, अतिसंग्रह, अनैतिकता, अप्रामाणिकता, अन्याय आदि कोई भी नहीं करे, करेगा तो उसे अमुक-अमुक प्रकार का दण्ड दिया जाएगा । कानून की या राज्य की दण्डशक्ति से कुछ अपराध बच भी गये तो उनकी रोकथाम जाति, कुल, संघ आदि के संगठनों के प्रभाव से हो सकेगी। इस प्रकार जिन अपराधों की रोकथाम धर्म कर सकता है, उन्हीं अपराधों की रोकथाम राज्य की दण्ड - शक्ति और समाज की प्रभाव-शक्ति के द्वारा हो सकता है, फिर धर्म की क्या आवश्यकता है ?
इसका समाधान यह है कि मनुष्य की प्रवृत्ति के तीन निमित्त हैं, अर्थात् तीन प्रेरणास्रोत हैं - (१) शक्ति, (२) प्रभाव और ( ३ ) सहजवृत्ति । दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं- दण्डप्रेरित, भय एवं लोभ प्रेरित और सहज संस्कार प्रेरित । जिस प्रकार पशुओं को डण्डे से हाँका जाता है, उसी प्रकार tus - प्रेरित व्यक्ति राज्य की दण्ड-शक्ति से हाँके जाते हैं । परन्तु दण्ड शक्ति से व्यक्ति के स्वतन्त्र मनोभावों का विकास नहीं हो पाता । दण्ड-शक्ति राज्यसंस्था का आधार है, इसका सूत्र है सबको दण्ड-शक्ति से अहिंसादि का पालन करने के लिए बाध्य कर दिया जायगा ।
१ स्वर्ग सुखानि परोक्षाण्यत्यन्तपरोक्षमेव मोक्षसुखम् ।
प्रत्यक्षं प्रशमसुखं न परवशं न च व्ययप्राप्तम् ॥ २३७ ॥ - प्रशमरतिप्रकरण २ इहैव तैजितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः । - भगवद्गीता, अ०५, श्लो०१६