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________________ ८ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका 'आणाए धम्मो', 'आणाए मामगं धम्म'-'आज्ञा-पालन में धर्म है । आज्ञानुसार चलने में मेरा धर्म है।' आज्ञा का स्पष्टीकरण आचार्य हेमचन्द्र ने इस प्रकार किया हैभगवान् ! आपकी यह त्रैकालिक एवं हेयोपादेय-विषयक आज्ञा है कि आस्रव को सर्वथा हेय समझो और संवर (मन-वचन काया एवं श्वास के संवर) को उपादेय । धर्म का फल : इहलौकिक या पारलौकिक ? . मानव के हृदय में सहज जिज्ञासा होती है कि धर्म का फल वर्तमानकाल में इस लोक में ही मिल जाता है, या मरने के बाद परलोक में मिलता है ? भगवान् महावीर से जब यह प्रश्न पूछा गया तो उन्होंने अनेकान्त शैली में उसका उत्तर दिया-"धर्म इस लोक के हित के लिए, सुख के लिए, निःश्रेयस (कल्याण) के लिए, आत्मा को रागद्वेषविजय में या कर्मक्षय में सक्षम (समर्थ) बनाने के लिए है, तथा वह परलोकानुगामी होने से परलोक के उत्कर्ष के लिए भी है।' वास्तव में देखा जाए तो धर्म का फल वर्तमानकाल में प्रत्यक्ष मिलता है। जिस क्षण धर्म का आचरण किया जाता है, उसी क्षण मैत्र्यादि भावनाओं से अनुप्राणित होने के कारण व्यक्ति रागद्वेष-रहित, कषाय-विजयी सुख-शान्तिमय उपशान्त होकर कर्मों का निरोध (संवर) या क्षय (निर्जरा) कर लेता है । धर्म का अनन्तर फल यही है। जिसके कर्मों का निरोध या क्षय होता है, उसका अन्तःकरण शुद्ध, इन्द्रियाँ अचंचल, वत्तियाँ प्रशान्त एवं व्यवहार शुद्ध हो जाता है। उसके मन में धर्म के फल के रूप में स्वर्ग प्राप्ति का प्रलोभन या नरक के भय से निवत्ति का भाव जागृत ही नहीं होता है। मध्यकालीन पुण्यवादी या पारलौकिक फलवादी धारा ने धर्म के इहलौकिक या प्रत्यक्ष फल के तथ्य को लुप्त या गौण कर दिया। किन्तु आचार्य उमास्वाति ने एक नया चिन्तन प्रस्तुत करके धर्म १ आकालमियमाज्ञा ते, हेयोपादेयगोचरा। आश्रवः सर्वथा हेयः, उपादेयश्च संवरः ।। -वीतरागस्तव १६५ २ धम्मस्स (इहलोग) हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए अणुगामियत्ताए अब्भुठेत्ता भवइ। -अपपातिक सूत्र भ. ४
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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