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६ / जन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका
जिनके हृदय में यह भावना उत्पन्न होती है, वे दुष्टजनों, पापियों या दत्ति वाले प्राणियों के प्रति द्वष, ईर्ष्या, व्यर्थ चिन्ता से बचकर उनके प्रति सद्भावना रखते हैं।
जो लोग इस भावना का रहस्य नहीं समझते, वे अधम आत्माओं को बलात् सुधारने की प्रवृत्ति करते हैं, उसमें असफलता मिलने पर खेद, या विषाद का अनुभव करते हैं और उन अधम आत्माओं पर रोष, या द्वष करते हैं। इससे वे तो सुधरते नहीं, उनका तो हृदय परिवर्तन नहीं होता; उन सुधारकों का अपना पतन अवश्य हो जाता है।
निष्कर्ष यह है कि प्रत्येक सत्कार्य के साथ मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावरूप चतुरंगी धर्म का अभाव हो तो वहाँ द्वष, ईर्ष्या, मात्सर्य, संघर्ष, नीचा दिखाने या गिराने की दुर्भावना, आर्त-रौद्रध्यान, निर्दयता आदि होने से वह सफल नहीं हो सकता, न ही उस व्यक्ति में मोक्ष प्राप्ति या राग-द्वषविजय की योग्यता बढ़ती है।
धर्माचरण का प्रधान सूत्र 'आत्मा से आत्मा को देखो' यह धर्माचरण का प्रधान सूत्र है। इस सूत्र के बिना धर्म शुद्ध रूप में जीवन में आचरित नहीं हो पाता। स्वर्ग के प्रलोभन या नरक के भय से धर्माचरण करने वाले लोग धर्म का शुद्ध रूप में आचरण नहीं कर पाते । वे धर्म से कर्मक्षय करने के बजाय शुभकर्म का संचय कर लेते हैं, अथवा अशुभकर्मों से बच जाते हैं किन्तु धर्म उनके स्वभाव में रमता नहीं, धर्म उनके रग-रग में प्रविष्ट नहीं होता। अगर उनके समक्ष नरक का कोई भय न हो अथवा स्वर्ग सुखों का प्रलोभन निष्फल प्रतीत होता हो तो वे शुद्ध धर्म को तिलांजलि भी देसकते हैं।
धर्म वस्तुतः आन्तरिक वस्तु है, वह अपनी आत्मा से दूसरी आत्मा को देखने की वृत्ति जागृत होने पर ही शुद्ध रूप में जीवन में आता है। परन्तु धर्म के क्षेत्र में जैसे-जैसे ऐसी अन्तमुखता दूर होती गई और बहिर्मुखता बढ़ती गई, वैसे-वैसे धार्मिक के व्यक्तित्व के दो परस्पर विरोधी रूप बन गये । धर्म की उपासना के समय का एक रूप और दूसरा रूप सामाजिक व्यवहार के समय का। एक व्यक्ति उपासना-धार्मिक क्रिया करते समय समता की मूर्ति बन जाता है, किन्तु व्यावहारिक क्षेत्र में-घर में, दुकान में या कार्यालय में वह क्रोधी, स्वार्थी, अन्यायी, अनैतिक, अप्रामाणिक और क्रूर बन जाता है।
१ 'अप्पसमं मनिज्ज छप्पिकाए।'