SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म के विविध स्वरूप | ५ उनके प्रति द्रोह. वैर, ईर्ष्या आदि न रखना, समस्त जीवों का हित या कल्याण चाहना, किसी का बुरा न चाहना, तथा वैर-विरोध, कलह-क्लेश को शान्त करने का नम्र प्रयत्न करना, मैत्री भावना है । मैत्री भावना का विकास होने पर साधक जब जीवमात्र के प्रति हिंसा, असत्य आदि से विरत हो जाता है तब वह मैत्री सक्रिय मानी जाती है। समत्वयोग, समता, विश्ववात्सल्य, विश्वप्रेम, विश्ववन्धुत्व, आत्मसमर्शित्व आदि इसी मैत्री भावना के पर्यायवाची शब्द हैं। ___ जो आत्माएँ पूण्य प्रकर्ष के कारण क्षमा, समता, उदारता, दया आदि अनेक गुणों से युक्त हैं । अहर्निश यथाशक्ति ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की आराधना में संलग्न हैं उन्हें देखकर प्रसन्न होना उनकी प्रशंसा करना, उन्हें प्रतिष्ठा देना प्रमोद या मुदिता भावना है । गुणानुराग, गुणग्राहकता, गुण बहुमान आदि इसके पर्यायवाची है। जिसके हृदय में यह भावना प्रकट होती है वह प्रत्येक वस्तु, शास्त्र एवं व्यक्ति में से गुण ग्रहण कर लेता है । गुणवानों से अधिकतम गुण ग्रहण करने से उसमें भी गुणों का संग्रह होता जाता है और वह स्वयं भी गुणों का भण्डार बन जाता है। इस कारण उसमें सहज ही धर्म का प्रवेश हो जाता है। जिसमें प्रमोद भावना नहीं, गुणग्राहकता नहीं, उसमें ईर्ष्या, द्वेष, छिद्रान्वेषण, छलप्रपंच आदि दुगुणों के कारण धर्म का केवल कलेवर हो रह जायगा, धर्म का प्राण तत्त्व उसमें टिक नहीं सकेगा। जो आत्माएँ पापकर्म के उदय से विविध प्रकार के कष्ट-दुःख भोग रहे हैं, उन्हें देखकर उनका दःख दूर करने की वत्ति कारुण्य भाव ना कहलातो है । दया, अनुकम्पा, दीनानुग्रह आदि उसके पर्यायवाची शब्द हैं। जिसके हृदय में यह भावना प्रकट होती है उससे किसी का दुःख देखा नहीं जाता। फलस्वरूप उसमें परदुःख-निवारण की वत्ति जागत होती है। उसके लिए उसे चाहे जितना तप, त्याग, संयम (इच्छानिरोध) करना पड़े, वह प्रसन्नतापूर्वक करता है । जहाँ निःस्वार्थ निष्काम दया या करुणा होगी, वहाँ धर्म तो अनायास हो आ जायगा। जो आत्माएँ अधम हैं, निरन्तर पापकर्म में रत रहते हैं, उद्धत बन कर हितैषियों को हितशिक्षा को ठकराकर बेखटके पापकर्म करते हैं, धर्म व धार्मिकों की निन्दा, उपहास करते हैं, हिंसा, चोरी, अनाचार, अन्याय आदि निःशंक होकर करते हैं, उनके प्रति न तो राग रखना और न द्वष रखना-उपेक्षा वत्ति धारण करना माध्यस्थ्य भावना कहलाती है। उदासीनता, उपेक्षा, मध्यस्थता, तटस्थता, शान्ति आदि इसके समानार्थक शब्द है ।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy