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४ | जैन तत्त्वकलिका : तृतीय कलिका दर्पण में दर्पणतल की तरह समस्त पदार्थ समूह झलकने लगते हैं। उससे धर्मअधर्म का यथार्थ यथावस्थित स्वरूप कुछ भी छिपा नहीं रहता। वे साक्षात् द्रष्टा होते हैं। लोकव्यवहार में भी सुनी-सुनाई बात कहने वाले की अपेक्षा साक्षात् द्रष्टा-प्रत्यक्ष अनुभवी की बात पर अधिक विश्वास किया जाता है। अतएव धर्म भी साक्षात् द्रष्टा केवलज्ञानी, रागद्वषविजेता आप्त पुरुषों द्वारा कथित ही वास्तविक श्रद्धास्पद होता है। इसीलिए 'केवलिपण्णत्तो धम्मो' विशेषण धर्म के लिए दिया गया है।
शुद्ध धर्म की कसौटी वीतराग सर्वज्ञकथित धर्म प्रामाणिक होने पर भी कई बार लोग सर्वज्ञकथित धर्म के आशय को न समझकर उसे विपरीत रूप में ग्रहण कर लेते हैं, यद्यपि विपरीत रूप से पकड़े हुए शस्त्र की तरह विपरोत रूप में गृहीत वह धर्म उनका सर्वनाश कर देता है । तथापि वे उसे ही धर्म कहते हैं और उसी का शुद्ध धर्म के नाम से प्रचार करते हैं । अतः प्रश्न होता है किसे शुद्ध धर्म कहें, किसे नहीं ? शुद्ध धर्म की यथार्थ कसौटी क्या है ? .
शुद्ध धर्म की एक कसौटी यह है कि जो अपनी आत्मा के अनुकूल न हो, वह अधर्म है, तथा जो आत्मा के अनुकूल हो, वह धर्म है। दूसरी कसौटी यह है कि जो अनुष्ठान या कार्य सर्वज्ञों के अविरुद्ध प्रवचन से प्रवर्तित हो, शास्त्रानुसारी हो और मंत्री आदि चार भावनाओं से संयुक्त हो, वह धर्म कहलाता है।
इसका कारण यह है कि मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्यये चार भावनाएँ जागृत रखकर कोई भी सुप्रवृत्ति करने से संसार घटेगा, मोक्षप्राप्ति की योग्यता बढ़ेगी, रागद्वषादि विकार अत्यल्प रह जाएंगे।' चारों भावनाओं का स्वरूप
विश्व के समस्त प्राणियों को मित्र, सखा, बन्धु या आत्मीय मानना, १ विसं तु पीयं जह कालकूड, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । एसो वि धम्मो विसओववन्नो हणाइ वेयाल इवाविवन्नो ।।
ध्ययन अ. २०, गा.४४ २ (क) जह मम न पियं दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं ।
(ख) 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।' (ग) वचनाद्यनुष्ठानमविरुद्धाद् यथोदितम् ।
___मैत्यादि भावसंयुक्त तद्धर्म इति कीर्त्यते ॥ · धर्मबिन्दु प्रकरण. १ ३३ चतस्रो भावनां धन्याः पुराणपुरुषाश्रिताः ।
मैत्यादयश्चिरंचित्ते ध्येया धर्मस्य सिद्धये ॥ -ज्ञानार्णव प० २७, श्लो० ४