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________________ धर्म के विविध स्वरूप | ३ करने वाला है। दुर्गति में गिरने से बचाने वाला और सद्गति या मोक्षगति में पहुँचाने वाला है। विचारणीय तथ्य यह है कि तथाकथित विभिन्न धर्मों के प्ररूपक महानुभावों ने शुद्ध धर्म के नाम से भी जो विधान किये हैं, उनमें परस्पर मतभेद हैं। इसी कारण साधारण मनुष्य भ्रम में पड़ जाता है कि किसे धर्म मानें और किसे नहीं? एक धर्म कहता है-यज्ञ में होने वाली पशुबलि के रूप में हिंसा हिंसा नहीं होती । दूसरा कहता है-यज्ञीय हिंसा भी हिंसा है । एक धर्म कहता है-अमुक रीति-रिवाज, अमुक रूढ़ि धर्म है, इसके विपरीत दुसरा धर्म कहता है-अमुक रीति-रिवाज या प्रथा का पालन ही धर्म है, बशर्ते कि उसमें अहिंसा, संयम और तप हो, जहाँ अहिंसा-सत्यादि नहीं है, तप नहीं है वहाँ अमुक प्रथा धर्म नहीं हो सकती। अतः हिंसाप्रधान, असंयम- (व्यभिचार, चोरी, असत्य) प्रधान या तपस्यारहित केवल भोग-विलास-परायण धर्म, धर्म नहीं हो सकता। अतः जिसमें अहिंसा, संयम और तप-त्याग की प्रधानता हो, जो आप्त पुरुषों द्वारा कथित हो, वही धर्म-केवलिप्रज्ञप्त धर्म ग्राह्य हो सकता है।' जिस धर्म का प्रवक्ता अनाप्तपुरुष है, वह धर्म चाहे कितना ही पुराना हो, चाहे उसके अनुयायी लाखों-करोड़ों ही क्यों न हों, वह धर्म ग्राह्य नहीं हो सकता। क्योंकि अनाप्तपुरुषों द्वारा कथित-उपदिष्ट धर्म की एक-दो बातें ठीक हों, तो भी उसमें कई बातें अहिंसादि धर्मानुकूल नहीं होंगी । अतः अनाप्त का कथन प्रामाणिक नहीं हो सकता। आप्त का अर्थ है-सर्वज्ञ तथा साक्षात ज्ञाता-द्रष्टा । ऐसे आप्त पुरुष केवली (केवलज्ञानी-सर्वज्ञ) एवं साक्षात् द्रष्टा वीतराग-(रागद्वोष रहित) पुरुषों द्वारा कथित धर्म ही प्रामाणिक एवं ग्राह्य हो सकता है। छद्मस्थ तथा अपूर्ण ज्ञान-दर्शन से युक्त व्यक्ति यत्किचित् अज्ञान एवं रागद्वष आदि से आवत होने के कारण अनाप्त होता है, और अनाप्त-कथित धर्म प्रामाणिक नहीं हो सकता । ___ जब अज्ञान और मोह का पूर्णतया नाश हो जाता है, तब उस शुद्ध आत्मज्योति के समक्ष कोई भी पदार्थ दुज्ञेय या अज्ञय नहीं रह पाता । जब दोष या अज्ञान आदि आवरणों का समूल क्षय हो जाता है, तब उसके ज्ञान १ 'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो।' -दशवकालिक अ०१, गा०१
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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