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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २६३
(२६) अहि(सर्प)-जैसे सर्प स्थिर दृष्टि रखता है, अर्थात् अपने लक्ष्य पर एकटक दृष्टि जमाए रहता है, वैसे ही साधु भी अपने मोक्षरूप ध्येय पर दृष्टि टिकाए रहता है, अन्यत्र नहीं।
(२७) आकाश-आकाश जैसे निरालम्ब (आधार रहित) होता है, वैसे ही साधु भी ग्रामादि के आलम्बन से रहित अनासक्त होता है ।
(२८) पक्षी-जैसे पक्षी स्वतन्त्र होकर उन्मुक्त विहार करता है, वैसे साधु भी स्वजनादि या नियत वासादि के प्रतिबन्ध से मुक्त होकर स्वतन्त्र विचरता है।
(२६) पन्नग (सर्प)-जैसे सर्प स्वयं घर नहीं बनाता, चूहे आदि के बनाये हुए बिलों में निवास करता है, वैसे ही साधु स्वयं मकान नहीं बनाता, गृहस्थों के द्वारा बनाये हुए मकानों में उनकी आज्ञा प्राप्त करके रहता है ।
(३०) वायु-जैसे वायु की गति प्रतिबन्धरहित अव्याहत है, इसी प्रकार साध भी प्रतिबन्ध रहित होकर स्वतन्त्र विचरण करता है।।
. (३१) जीवगति -- मत्यु के बाद परलोकगमन में जीव की गति में कोई रुकावट नहीं होती, उसी प्रकार स्व-पर-सिद्धान्तज्ञ साघ भी निःशंक होकर देश-विदेश में धर्म प्रचार करता हुआ विचरण करता है।'
इस प्रकार गुरुपद में आचार्य, उपाध्याय और साध, तीनों आराध्य धर्मदेव सम्मिलित हैं।
वस्तुतः धर्मदेव (आचार्य, उपाध्याय और साध.) का पद बड़े महत्व का है । ये शुद्ध धर्म का आचरण करने वाले, सुविहित और सुव्रत होते हैं । तीर्थंकर देव तो सभी कालों में नहीं होते, पंचम काल (वर्तमान काल) में तो होते ही नहीं, चतुर्थ काल में भी कभी होते हैं और कभी नहीं होते; उस समय धर्म की ज्योति को धर्मदेव ही प्रज्वलित रखते हैं, वे ही जनता को धर्म का उपदेश देकर, तत्त्वों का ज्ञान कराकर धर्म की ओर उन्मुख करते हैं, उन्हें सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र की ओर उन्मुख करते हैं; जो धर्म को एक बार ग्रहण करके उससे च्युत होने लगते हैं, उन्हें पुनः स्थिर करते हैं, दृढ़ बनाते हैं।
इस प्रकार धर्मदेव श्रावकों के लिए परम हितकारी होते हैं और इसीलिए श्रावकों को आगमों तथा ग्रन्थों में श्रमणोपासक कहा गया है।
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औपपातिक सूत्र