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२६२ : जैन तत्त्वकलिका - द्वितीय कलिका
है, उसी प्रकार साध ु भी मायारहित स्वच्छ हृदय होने से शास्त्रों के भावों पूर्णता ग्रहण कर लेता है ।
(१६) गन्धहस्ती - जिस प्रकार हाथी रणांगण में अपना प्रबल शौर्य दिखाता है, वैसे ही साधु भी परीषह सेना के साथ जूझने में अपना आत्म - वीर्य (शौर्य) प्रकट करता है और विजयी होता है ।
(१७) वृषभ - जैसे धोरी बैल उठाए हुए बोझ को यथास्थान पहुँचाता है, बीच में नहीं छोड़ता, वैसे ही साधु भी ग्रहण किये हुए महाव्रत - भार को उत्साहपूर्वक वहन करता है ।
(१८) सिंह - जैसे सिंह महापराक्रमी होता है, वन के मृगादि अन्य पशु उसे हरा नहीं सकते, वैसे ही साधु भी आध्यात्मिक शक्तिसम्पन्न होता है, परीषह उसे पराजित नहीं कर सकते ।
(१६) शारद जल - जैसे शरद् ऋतु का जल निर्मल होता है, उसी प्रकार साधु का हृदय भी राग-द्व ेषादि मल से रहित होता है ।
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(२०) भारण्ड पक्षी - जैसे भारण्ड पक्षी अहर्निश सावधान रहता है, तनिक भी प्रमाद नहीं करता, उसी प्रकार साधु भी सदैव संयम में अप्रमत्त एवं सावधान रहता है ।
(२१) गैडा - जैसे गैंडे के मस्तक पर एक ही सींग होता है, उसी प्रकार साधु भी राग-द्व ेष रहित होने से भाव से एकाकी रहता है और किसी भी व्यक्ति एवं वस्तु में आसक्त नहीं होता ।
(२२) स्थाणु — जैसे – ठंठ ( स्थाणु) निश्चल खड़ा रहता है, वैसे ही Tara आदि के समय निश्चल - निष्प्रकम्प खड़ा रहता है ।
(२३) शून्यगृह - जैसे सूने घर में सफाई, सजावट आदि के संस्कार नहीं होते, उसी प्रकार साधु भी शरीर का संस्कार नहीं करता, वह बाह्य शोभा-गार का त्यागी होता है ।
(२४) दीपक - निर्वात स्थान में जैसे दीपक स्थिर अकम्पित रहता है, उसी प्रकार साधु भी एकान्त स्थान में रहता हुआ, राग-द्वेषरहित, निर्मल एवं शुद्ध चित्त में वास करता हुआ उपसर्ग आने पर भी ध्यान से चलित नहीं होता ।
(२५) क्षुरधारा - जैसे उस्तरे के एक ही धार होती है, वैसे ही साधु भी त्यागरूप एक धारा वाला होता है ।