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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २६१
(४) स्वर्ण - जैसे निर्मल स्वर्ण प्रशस्त रूपवान् होता है, उसी प्रकार साधु भी रागादि का नाश कर प्रशस्त आत्मस्वरूपवान् होता है ।
(५) कमलपत्र - जैसे कमल पत्र जल से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार मुनि भी अनुकूल विषयों से निर्लिप्त - अनासक्त रहता है ।
(६) चन्द्र- चन्द्रमा जैसे सौम्य होता है, उसी प्रकार साधु स्वभाव से सौम्य होता है ।
(७) सूर्य - जैसे सूर्य तेज से दोप्त होता है, वैसे ही साधु तप के तेज से दीप्त रहता है ।
(८) सुमेरु - जैसे सुमेरु पर्वत स्थिर है, प्रलय काल में भी विचलित नहीं होता, उसी प्रकार साधु संयम में स्थिर रहता हुआ अनुकूल-प्रतिकूल परीषहों से विचलित नहीं होता ।
(६) समुद्र - जिस प्रकार समुद्र गम्भीर होता है, उसी प्रकार साधु भी गम्भीर होता है, हर्ष - शोक के कारणों से चित्त को चंचल नहीं होने देता ।
(१०) पृथ्वी -- जिस प्रकार पृथ्वी सभी बाधा-पीड़ाएँ सहती है, उसी प्रकार साधु भी सभी प्रकार के परीषह और उपसर्ग सहन करता है ।
(११) भस्माच्छन्न अग्नि - जैसे राख से ढकी हुई अग्नि बाहर से मलिन दिखाई देती हुई भी अन्दर से प्रदीप्त रहती है, उसी प्रकार साधु तप से कृश होने से बाहर से म्लान दिखाई देता है, किन्तु अन्दर से शुभ भावना के द्वारा प्रकाशमान रहता है ।
(१२) घतरिक्त अग्नि - जैसे घी से सींची हुई अग्नि तेज सहित देदीप्य - मान होती है, वैसे ही साधु, ज्ञान एवं तप के तेज से देदीप्यमान रहता है ।
(१३) गोशीर्ष चन्दन - जैसे गोशीर्ष चन्दन शीतल और सुगन्धित होता है, उसी प्रकार साध भी कषायों से उपशान्त होने से शीतल एवं शील की सुगन्ध से वासित होता है ।
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(१४) जलाशय - हवा चलने पर भी जैसे जलाशय की सतह सम रहती है, ऊँची-नीची नहीं होती; वैसे ही साधु भी सम्मान-अपमान, सुख दुःख, अनुकूलता प्रतिकूलता में सम रहता है ।
(१५) दर्पण - स्वच्छ दर्पण जिस प्रकार स्पष्ट प्रतिबिम्बग्राही होता