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२६० : जैन तत्त्वकेलिका-द्वितीय क.लिका
काश (छिद्र) नहीं रहता था। जिस प्रकार एक धनाढ्य रत्नों के पिटारे ( करण्डक) की सहायता से व्यापारादि कार्य कर सकता है, उसी प्रकार ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूपी रत्नों के पिटारे के कारण वे कुत्रिकापण ( त्रिलोकी की वस्तुओं की देवाधिष्ठित हाट) के समान थे । अर्थात् - उन स्थविरों से सब प्रकार के ज्ञानादि पदार्थ प्राप्त होते थे, सभी प्रकार के प्रश्नों के उत्तर जिज्ञासुओं को प्राप्त होते थे; इस कारण वे परवादी - मानमर्दक ( अकाट्य युक्तियों से स्व-सिद्धान्त मण्डनकर्त्ता ) थे; द्वादशांग वाणी तथा समस्त गणिपिटकों के धारक थे; सर्वाक्षर- सन्निपाती थे, सर्वभाषानुगामी ( स्वभाषा के बल से सब भाषाओं में भाषण - संम्भाषणकुशल) थे, इसलिए वे जिन तो नहीं, परन्तु जिन सदृश थे और जिन भगवान् की तरह यथातथ्य रूप से पदार्थों का वर्णन करते थे। इतनी प्रतिभाओं और गरिमाओं से सम्पन्न वे स्थविर मुनि संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित ( वासित) करते हुए (भगवान् के साथ) विचरण करते थे । १
साधु की इकतीस उपमाएँ
औपपातिक सूत्र में 'साधु को निम्न ३१ उपमाओं से उपमित किया गया है
(१) कांस्यपात्र - उत्तम एवं स्वच्छ कांस्यपात्र जैसे जलमुक्त रहता है, उसी प्रकार साधु भी सांसारिक स्नेह से मुक्त रहता है ।
(२) शंख - जैसे शंख पर रंग नहीं चढ़ता, उसी प्रकार मुनि पर भी रागभाव का रंग नहीं चढ़ता ।
(३) कच्छप - जैसे कछुआ चार पैर और एक गर्दन इन पांचों अवयवों को सिकोड़कर, खोपड़ी में छिपाकर सुरक्षित रखता है, वैसे ही मुनि भी संयम क्ष ेत्र में पांचों इन्द्रियों को गोपन करता है, उन्हें विषयोन्मुख नहीं होने देता ।
१ " तेसि णं भगवंताणं आयावाया वि विदिता भवति, परवाया विदिता भवंति, आयावायं जमइत्ता नलवणामिव मत्तमातंगा, अच्छिद्द पसिणवागरणा, रयणकरंडसमाणा, कुत्तियावणभूया, परवादियपमद्दणा, दुवालसंगिणो समत्तगणिपिडगधरा सव्वक्खर सण्णिवाइणो सव्वभाषानुगामिणो अजिणा जिणसंकासा जिणा इव अविहं वागरमाणा, संजमेण तवसा अप्पाणं भावे माणा विहरति । "
- औपपातिकसूत्र,
त्र, सू० १६