SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २५६ प्रधान, विद्याप्रधान, मंत्रप्रधान, वेदप्रधान (वेदों के सांगोपांग ज्ञाता), ब्रह्मचय (कुशलानुष्ठान में) प्रधान, नयप्रधान, नियम (अभिग्रहादि में) प्रधान, सत्यप्रधान, सम्यकवादियों में प्रधान, द्रव्य से शारीरिक शौच और भाव से शुद्ध निर्दोष संयमियों में प्रधान, सून्दर वर्ण या यशकीर्ति वाले, लज्जालु, तपस्वी, जितेन्द्रिय, तीनों योगों को शुद्ध रखने वाले या आहारादि की शोध (गवेषणा) करने वाले, निदानरहित, औत्सुक्य भाव से रहित, बाह्य-अशुभ लेश्याओंमनोवत्तियों से रहित अप्रतिम लेश्याओं (अतुल मनोवृत्तियों) से युक्त, सुश्रामण्य में रत (अनुरक्त), दान्त (गुरुओं द्वारा दमित-अनुशासित) हैं, जो इस निग्रन्थप्रवचन को प्रमाणभूत (आगे) करके विचरण करते हैं।' . स्थविर मुनियों को अप्रतिम गरिमा औपपातिक सूत्र में आगे स्थविर मुनियों की अलौकिक प्रतिभाओं तथा अप्रतिम गरिमाओं का वर्णन किया गया है उन स्थविर भगवन्तों को आत्मवाद पूर्ण रूप से विदित (ज्ञात) हो गये थे, परवाद भी उन्हें विदित (विशेष रूप से परिचित) हो गये थे, अर्थात् वे स्वमत-परमत के पूर्ण वेत्ता थे। जिस प्रकार कोई भी व्यक्ति अपने नाम को किसी भी दशा में नहीं भूलता, तथा जैसे मत्तहाथी आनन्दपूर्वक सुन्दर उद्यान में क्रीड़ा करता है, उसी प्रकार बार-बार आवृत्ति करके पूर्णरूप से आत्मवाद को अविस्मृतरूप से अधिगत (अवगत) करके वे अपनी मस्ती से आनन्दपूर्वक आत्मवादरूपी आराम में रमण करते थे। उनके द्वारा किये गये प्रश्नों के विवेचन (व्याकरण-व्याख्यान) में किसी को भी तर्क करने का अव १ "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा, कुलसंपण्णा, बलसंपण्णा ओअंसी, तेअंसी, वच्चंसी, जसंसी, जियकोहा, जियमाणा, जियमाया, जियलोहा, जियइंदिया, जियणिद्दा, जियपरीसहा, जीवियास-मरणभयविप्पमुक्का, वयप्पहाणा, गुणप्पहाणा, करणप्पहाणा, चरणप्पहाणा, णिग्गहप्पहाणा, णिच्छयप्पहाणा, अज्जवप्पहाणा मद्दवप्पहाणा, लाघव'पहाणा, खंतिप्पहाणा, मुक्तिप्पहाणा विज्जाप्पहाणा, मंतप्पहाणा, वेयप्पहाणा, बंभपहाणा, ' नयप्पहाणा, नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा, सोयप्पहाणा, चारुवण्णा, लज्जा-तवस्सी, जिइंदिया, सोही, अणियाणा, अप्पुस्सुआ, अबहिल्लेसा अप्पडिलेस्सा सुसामण्णरया दंता, इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरओ काउं विहरंति ।" - औपपातिक सूत्र, सू० १६
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy