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२५८ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका नहीं होता, अर्थात् अक्षीण महानस शक्ति के प्राप्त हो जाने से मूलभोजन से सहस्रों पुरुषों को तृप्त किया जा सकता है।
(२१) वैक्रियलब्धि - जिस लब्धि के प्राप्त हो जाने पर मनचाहा रूप बनाने, एक या अनेक, छोटा या बड़ा, सुरूप या कुरूप, हलका या भारी यथेच्छ शरीर बना लेने आदि की शक्ति उत्पन्न हो जाती है।
(२२) जंघाचारणलब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से जंघा में आकाश में उड़ने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है।
(२३) विद्याचारणलब्धि-जिस तपःकर्म के प्रभाव से मुनि में विद्या (मंत्रशक्ति) द्वारा आकाश में उड़ने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है ।
ये और इसी प्रकार की अन्य अनेक लब्धियाँ, सिद्धियाँ अथवा आत्मशक्तियाँ विविध तपश्चर्याओं के प्रभाव से मुनि को प्राप्त हो जाती है । यद्यपि लब्धि-प्राप्त विवेकसम्पन्न मुनि जनता को चमत्कार, आडम्बर दिखाने या अपनी शक्तियों का व्यर्थ प्रदर्शन करने में इन लब्धियों का दुरुपयोग नहीं करते, और न ही इन लब्धियों के प्रभाव से स्वयं सुख-सुविधापूर्ण या भोग-विलासयुक्त जीवन बिताने या अमुक भोगों की प्राप्ति की इच्छा करते हैं । वे मुनि उक्त लब्धियाँ प्राप्त करने के लिए तपश्चर्या नहीं करते, किन्तु उत्कृष्ट तपः कर्म के प्रभाव से उन्हें अनायास ही अयाचित रूप से ये लब्धियाँ या शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
यद्यपि मुनिधर्म की क्रियाओं और आचार-विचार के सम्बन्ध में शास्त्रों और ग्रन्थों में हजारों पष्ठ भरे पड़े हैं, परन्तु उन सबका मूल दशविध श्रमणधर्म और साधु के २७ गुण हैं।
भगवान् महावीर के मुनिगण को विशेषताएं औपपातिक सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर के मुनिमण्डल की विशेषताओं और उपलब्धियों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
उस काल और उस समय (अवसर्पिणीकाल के चतुर्थ दुःषम-सुषम आरे) में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के अन्तेवासी (शिष्य) बहत-से स्थविर भगवान् जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, क्रोधविजयी, मानविजयी, मायाविजयी, लोभविजयी, जितेन्द्रिय, निद्राविजयी, परीषहविजेता, जीविताशा एवं मरण भय से विमुक्त, व्रतप्रधान, गुणप्रधान, करणप्रधान, चरणप्रधान, निग्रहप्रधान, निश्चयप्रधान, आर्जवप्रधान, मार्दवप्रधान, लाघवप्रधान, क्षान्तिप्रधान, मुक्ति (निर्लोभता)