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________________ साधु का सवांगीण स्वरूप ! २५७ (६) विप्रौषधिप्राप्त-मूत्रादि के बिन्दु तथा मल-मूत्र औषधरूप होकर रोगोपशमन करने में समर्थ बन जायें। (१०) आमर्षणौषधिप्राप्त हस्तादि का स्पर्श भी औषधि का काम करे। (११) सवौषधिप्राप्त-शरीर के समस्त अवयव औषधि रूप में परिणत हो जावें। (१२) कोष्ठकबुद्धि-जिस प्रकार कोठे में रखा हुआ धान्य सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार गुरु आदि से सीखा हुआ समस्त ज्ञान बुद्धिरूपी कोष्ठक (कोठे) में सुरक्षित रहता है, नष्ट नहीं होता। (१३) बोजबुद्धि-जिस प्रकार वट वृक्ष का बीज विस्तत होता जाता है, उसी प्रकार जिसकी बुद्धि प्रत्येक शब्द का अर्थ विस्तार करने में सक्षम हो जाती है। (१४) पटबुद्धि-जिस प्रकार माली अपने बगीचे से, जितने भी वृक्षादि या पुष्पफलादि गिरते हैं, उन सबको ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार जिसकी बुद्धि गुरुमुख से निःसृत समस्त सूत्र-अर्थ आदि सुवाक्यों को ग्रहण कर लेती है। (१५) संभिन्नश्रोतृशक्ति-जिसकी सभी इन्द्रियाँ या शरीर के समस्त रोम कान की तरह शब्द सुनने की शक्ति वाले बन जायें । (१६) पदानुसारिणीलब्धि-एक पद उपलब्ध होने पर उससे सम्बन्धित तदनुसारी अनेक पदों को उच्चारण करने की शक्ति । (१७) क्षीरावालब्धि-जिस लब्धि के माहात्म्य से श्रोताओं को क्षीर के समान मधुर और कानों तथा मन को सुखप्रद लगने वाले वचन मुनि के मुख से निकलते हैं। (१८) मध्वाश्रवा लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से मुनि का वचन मधु (शहद) की तरह श्रोता के सर्व दोषों (आन्तरिक दोषों) का उपशमन करने वाला, आल्हाद उत्पन्न करने वाला एवं समभावोत्पादक होता है। (१९) सपिराश्रवा लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से मुनि का वचन घत के समान श्रोताओं में धर्मस्नेह-धर्मानुराग उत्पन्न करने वाला होता है। (२०) अक्षीण-महानस लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से थोड़ा-सा भिक्षा-प्राप्त मूल भोजन हजारों पुरुषों को दिये जाने पर भी क्षीण (समाप्त)
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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