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________________ २५६ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका बसना । अर्थात् गुरु की अधीनता में रहकर ग्रहण-शिक्षा और आसेवनाशिक्षा द्वारा सद्गुणों का अभ्यास करना । विशेषतया गुरुकुल (गुरु की सेवा) में रहकर स्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द तथा शरीरादि की आसक्ति से दूर रहने और निष्ठापूर्वक ब्रह्मचर्य पालन का अभ्यास करना ब्रह्मचर्यवास रूप धर्म का उद्देश्य है। इस प्रकार दशविध श्रमण धर्म' साधु जीवन का अनिवार्य अंग है। श्रमण को प्राप्त होने वाली लब्धियाँ पूर्वोक्त गुणों, धर्मों और संयम आदि से युक्त साध को विविध तपश्चरण के फलस्वरूप अन्तःकरण शुद्ध हो जाने से अनेक लब्धियाँ, सिद्धियां या आत्मशक्तियाँ उपलब्ध हो जाती हैं । वे इस प्रकार हैं- . (१) मनोबललब्धि -मन का परम दृढ़ और अलौकिक साहस युक्त हो जाना। (२) वाक्बललब्धि-प्रतिज्ञा-निर्वाह करने की शक्ति उत्पन्न हो जाना। (३) कायबललब्धि-क्षुधादि लगने पर भी शरीर में शक्ति और स्फूर्ति का बने रहना; शरीर म्लान (कान्तिरहित) न होना। (४) मनसाशापानुग्रहसमर्थ-मन से शाप देने और अनुग्रह करने में समर्थ हो जाना। (५) वचसा शापानुग्रहसमर्थ-वचन से शाप और अनुग्रह में समर्थता। (६) कायेन शापानुग्रहसमर्थ-काया से शाप देने और अनुग्रह करने में समर्थ हो जाना। (७) खेलौषधिप्राप्त- मुख का मल (थूक, खंखार या कफ) रोगोपशमन में समर्थ हो। . (८) जल्लोषधिप्राप्त-शरीर के मैल एवं पसीने से सभी रोगों का उपशमन हो जाय। १ (क) दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते तं जहा-खंती १, मुत्ती २, अज्जवे ३, महवे ४, लाघवे ५, सच्चे ६, संजमे ७, तवे ८, चियाए ६, बंभचेरवासे १० । -समवायांग, १० समवाय (ख) खंती य मद्दवज्जवमुत्ती, तवसंजमे य बोद्धव्वे । . सच्चं सोयं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मे । -आ० हरिभद्र द्वारा उद्धृत प्राचीन संग्रहणी गाथा
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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