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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २५५
में सत्यता-यथार्थता तथा सम्यक् तत्त्वों पर अन्तःकरण में दृढ़ श्रद्धान करना भावसत्य है।
किसी को दिये हए वचन का पालन करना भी सत्यधर्म का पालन है। क्योंकि जगत् में सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है, (नास्ति सत्यात्परो धर्मः)।
___ सत्य धर्म पर आरूढ रहने से साध के प्रति लोकविश्वास बढ़ता है, वचनसिद्धि प्राप्त होती है और वह जगत्पूज्य बनता है।
(७) संयमधर्म-पूर्वोक्त १७ प्रकार के संयम का पालन करना तथा विशेषतया स्वच्छन्दाचार को रोककर, अपनी इन्द्रियाँ तथा मन, वचन और काया पर नियमन करना अर्थात-विचार, वाणी और गति-स्थिति में यतना का अभ्यास करना संयमधर्म है।
(८) तपोधर्म-मलिन वृत्तियों को निमल करने के लिए अपेक्षित शक्ति को स्वेच्छा से साधना में लगाना, अथवा स्वेच्छा से आत्म-दमन करनाइच्छाओं का निरोध करना तप है । तप. धर्म तभी बनता है, जब साधु श्रद्धा, ज्ञान, अन्तःकरण और विवेकपूर्वक स्वेच्छा से अपनी इन्द्रियों, मन, वाणी और काया को तपाता है, धर्मपालनार्थ आने वाले कष्टों की कसौटी पर अपने मन-वचन-काय को कसकर आत्मशक्ति बढ़ाने का अभ्यास करता है । काम-क्रोधादि ट्रिपुओं के दमन का उपाय तप ही है। इससे आत्मा शुद्ध दोषरहित बनता है।
(8) त्यागधर्म-त्याग का अर्थ यहाँ शरीर और शरीर से सम्बन्धित समस्त सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति आसक्ति, ममता मूर्छा का परित्याग करना है। सर्वसंग-परित्याग में संसार के सभी पदार्थों तथा भूतकाल एवं वर्तमानकाल में व्यक्तियों के साथ होने वाले आसक्तिपूर्ण सम्बन्धों का त्याग आ जाता है।
त्याग का अर्थ भी किया गया है-संविग्न मनोज्ञ साधओं को अपने निश्राय की वस्तु में से दान करना अर्थात वस्त्र, पात्र, आहारादि में से अपने सार्मिक साधुओं को देना, त्यागधर्म है।
(१०) ब्रह्मचर्यवासरूप धर्म-ब्रह्मचर्य-वास के यहाँ दो अर्थ हैं-(१) कामशत्र का निर्दलन करने वाले ब्रह्मचर्य -- शील में निवास करना यानी ब्रह्मचर्यव्रत में निष्ठापूर्वक रम जाना, और (२) साधना में होने वाली त्रुटिया अथवा अगुवणों को दूर करने के लिए ब्रह्म (गुरु) के चर्य (सान्निध्य) में