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२५४ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका
___ आचार्य हरिभद्र लाघव का अर्थ 'अप्रतिबद्धता" करते हैं, अर्थात द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सम्बन्धित प्रतिबद्धता का त्याग करना।
वास्तव में साध जब किसी आदत का शिकार हो जाता है, अथवा किसी एक क्षेत्र के प्रति ममत्वबद्ध होकर कहीं जम जाता है, या अमुक समय तक कहीं रहने के लिए वचनबद्ध हो जाता है अथवा अमुक अशुभभावों का चिन्तन करने का आदी हो जाता है, तब वह दूसरों के लिए भी भारी हो जाता है और अपने लिए भी भारभूत हो जाता है, लाघवधर्म से वह च्युत हो जाता है। अतः प्रतिबद्धता अथवा उपकरणवृद्धि से उसे बचना ही श्रेयस्कर है।
इसके बदले तत्त्वार्थसूत्र आदि में आकिञ्चन्य धर्म बताया गया है। अकिञ्चनता का अर्थ है-किसी भी सजीव-निर्जीव वस्तु के प्रति किञ्चित् भी ममत्व-बुद्धि, आसक्ति, लालसा या तृष्णा न रखना, यहां तक कि अपने शरीर, संघ, शिष्य-शिष्या, शास्त्र, पात्र आदि को भी अपना नहीं समझना चाहिए, इतनी निर्लेपता धारण करने से आकिंचन्य या लाघवधर्म पुष्ट होता है।
(६) सत्यधर्म-सत्य का अर्थ है जैसा देखा, सुना, सोचा या अनुमान किया है, दूसरों के समक्ष वैसा ही कहा जाये, साधु के विचार, उच्चार (वाणी) और आचार (व्यवहार-आचरण), तीनों में सत्यता होनी चाहिए। कभी किसी अपवाद मार्ग का आश्रय लेना पड़े तो उस समय भी अन्तःकरण की सत्यता होनी चाहिए। प्राणान्त कष्ट आ पड़ने पर भी सत्यधर्म से विचलित नहीं होना चाहिए।
सत्य का अर्थ यह भी है कि जो प्राणिमात्र के लिए हितकर हो । काने को काना कहना, या कोढ़ी को कोढ़ी कहना वाणी से सत्य होते हुए भी उक्त व्यक्तियों के चित्त को दुःखित करने वाला होने से वह अहितकर है, अतएव, वस्तुतः वह सत्य नहीं है।
सत्य भी दो प्रकार का है-द्रव्यसत्य और भावसत्य । प्राणियों के लिए हितकर यथार्थ वचन द्रव्यसत्य है और विचार, भाव, दृष्टि और श्रद्धा
१ (क) लाघवं-अप्रतिबद्धता
-आवश्यक शिष्यहिता टीका (ख) लाघवं द्रव्यतोऽल्लोपधिता भावतो गौरव त्यागः ।
-समवायांग टीका २ आवश्यक चूर्णि
३ सद्भ्यो हितम्-सत्यम् ।