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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २५३
करते, उनके मन में इच्छित वस्तु न मिलने पर भी कोई आकुलता - व्याकुलता नहीं होती, वे सन्तुष्ट, सुखी और शान्तिमय रहते हैं, वे अपने पास के किसी भी अभीष्ट उपकरण - वस्त्र - पात्र आदि का भी समय आने पर त्याग कर देते हैं। उपकरणों पर उनका तनिक भी ममत्व नहीं होता । कोई सुविहित साधु के मिलने पर वे उनसे कहते हैं - 'कृपासिन्धो ! मुझ पर अनुग्रह करके इस वस्तु को ग्रहण कीजिए, मुझे तारिये ।' वे ग्रहण कर लें तो यह समझे कि मैं कृतार्थ हुआ ।
तत्त्वार्थ सूत्र में 'मुक्ति' बदले शौच धर्म है । उसका अर्थ भी आचार्य जिनदास ने धर्मोपकरणों के प्रति अलुब्धता किया है ।"
(३) आर्जव धर्म - मन-वचन-काया की कुटिलता का परित्याग करके ऋजुता सरलता -- मन-वचन-काया में एकरूपता, विचार - भाषण व्यवहार में एकता धारण करना ही आर्जव धर्म है । भावों की शुद्धता और पवित्रता इसी में है कि जो बात मन में हो, वही वचन से कहे और तदनुसार ही कार्य करे। यदि किसी गुण की या क्रिया की अपने में कमी हो तो उसे छिपाये नहीं, मायाचारी न करे, न ही दम्भ और दिखावा करे। अपनी असमर्थता या दुर्बलता को प्रकट करने में कोई दोष नहीं, किन्तु मायाचारी, कपटवृत्ति और
प्रपंच करने से तो बहुत भयंकर परिणाम भोगना पड़ता है, ऐसा सोचने से ही मुनि आर्जवधर्म का पालन कर सकता है ।
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(४) मार्दवधर्म - चित्त में मृदुता, व्यवहार में नम्रता और वचनों में कोमलता का होना मार्दव है। मृदुता नष्ट होती है - अभिमान से प्रसिद्धि के गर्व से; प्रशंसा, सम्मान, ऋद्धि, रस और साता (सुख-सुविधा) के घमण्ड, (गौरव) से, जाति, कुल, बल आदि ८ प्रकार के मद से । अतः इन्हें पाकर अपने आपको बड़ा या उत्कृष्ट मानकर गर्वित न होने से, इन वस्तुओं की नश्वरता का विचार करने से मार्दवधर्म आता है ।
(५) लाघवधर्म - लाघव का अर्थ आचार्य अभयदेव ने किया हैद्रव्य से अल्प उपधि रखना और भाव से गौरव (प्रसिद्धि, यश-कीर्ति, सम्मान तथा सुख सुविधा आदि की प्राप्ति) का त्याग करना । अथवा भाव से कर्मों के भार को हटाना भी लाघव है ।
१ सोयं अलुद्धता धम्मोवगरणेसु वि ।
— आवश्यकचूर्णि : आचार्य जिनदास