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२५२ : जैन तत्त्वकलिका - द्वितीय कलिका
दिलाता है, यह सत्य ही तो कहता है अतः इस पर क्रोध न करके क्षमाशीलता धारण करनी चाहिए ।
( उ ) क्षमा की शक्ति का चिन्तन - क्रोध करने वाले के प्रति क्रोध न करके क्षमा धारण करने से चित्त में स्वस्थता, शान्ति और प्रसन्नता बढ़ती है । बदला लेने या प्रतीकार करने में व्यय होने वाली शक्ति को क्षमाशीलता से बचाकर उसका व्यय सन्मार्ग में किया जा सकता है । फिर क्षमा की शक्ति आत्मबल एवं आत्मवीर्य को बढ़ाती है, जिससे मोक्ष मार्ग में प्रबल पुरुषार्थ किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त क्षमा की शक्ति का अपकारी पर अचूक प्रभाव पड़ता है । साथ ही जिस प्रकार शुभाशुभ शब्दों का कर्णेन्द्रिय में प्रविष्ट होने का स्वभाव है, उसी प्रकार साध में इन शब्दों के प्रहार को सहन करने की क्षमता - क्षमा करने की शक्ति होनी चाहिए ।
इसी प्रकार अर्जुनमुनि, गजसुकुमाल मुनि, भगवान् महावीर आदि की उत्तम क्षमा का चिन्तन करके अपने में क्षमाशक्ति बढ़ानी चाहिए।
(२) मुक्तिधर्म - मुक्ति का अर्थ यहाँ निर्लोभता है ।" साधक में लोभवृत्ति होने से उसका अपरिग्रह महाव्रत दूषित होता है, वस्तु के प्रति ममता, मूर्च्छा एवं आसक्ति जागती है, जो साधु को संयम से भ्रष्ट कर देती है । दूसरों के पास अधिक उपकरण या साधन देखकर साध अपने मन में भी वैसे और उतने उपकरणों या साधनों को पाने का लोभ न करे । वह यह सोचे कि जितनी - जितनी उपधि बढ़ेगी या वस्तुओं को पाने का लोभ बढ़ेगा, उतनी उतनी उपाधि, चिन्ता, व्याकुलता एवं अशान्ति बढ़ेगी, साधु जीवन की शान्ति समाप्त हो जायगी । जितना - जितना लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम होगा, उतना उतना लाभ तो मुझे मिल ही जाएगा, फिर वस्तुओं को पाने की लालसा, तृष्णा या लोभवृत्ति करके नाहक ही कर्मबन्ध क्यों किया जाए ? लोभ से हानि के सिवाय और कोई लाभ तो है नहीं । अतः मुक्ति धर्म के धारक साधु को लोभवृत्ति से दूर रहना चाहिए ।
जो साधु लोभवश अधिकाधिक उपकरणों का संग्रह करते हैं, उन्हें विहार के समय बड़ी अड़चन होती है, अधिक उपकरण होने से प्रतिलेखनादि में भी अधिक समय लगाना पड़ता है, जिससे ज्ञान-ध्यान में व्याघात होता है । लोभी साधु का आदर-सत्कार कम हो जाता है । इसके विपरीत सन्तोषवृत्ति के साधु हैं, वे अपने शरीर की रक्षा की भी परवाह नहीं
१ मुक्तिर्निलोभता ।