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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २५१
समस्त स्त्रियाँ 'भगिनी' हैं, अतः इसको पत्नी भी मेरी बहन है । अतः यह 'साला' कहता है तो क्या अनुचित कहता है ?
(आ) क्रोधवृत्ति के दोषों का चिन्तन - जिसे क्रोध आता है, वह आवेश में आकर गाली-गलौज या मार-पीट करके दूसरे के साथ वैर की परम्परा बढ़ाता है । यदि क्रोधावेश में दूसरे को मारता पीटता या हानि पहुँचाता है तो वह अहिंसा महाव्रत को नष्ट करता है । इस प्रकार क्रोधवृत्ति के दोषों का चिन्तन करके क्षमाभाव धारण करे ।
(इ) अपकारी के बालस्वभाव का चिन्तन - क्षमाशील पुरुष निन्दा अपशब्द, गाली, अपमान, प्रहार करने या मारने वाले के प्रति यह विचार करे कि बेचारा बालस्वभाववश ऐसा करके अपने सुकृत (पुण्य) को नष्ट कर रहा है मुझे इससे क्या नुकसान है ? मेरी आत्मा को या मेरे धर्म को तो यह जरा भी हानि नहीं पहुँचा सकता, उलटे यह मेरे साथ दुर्व्यवहार करके मुझे क्षमाभाव धारण करने, या समभावपूर्वक सहन करने से निर्जरा ( कर्मक्षय) का सुअवसर देता है । अतः अनायास ही प्राप्त क्षमा के सुअवसर को खोना उचित नहीं है । अपकारी के बालस्वभाव के समान मैं भी बालस्वभाव वाला बन गया तो मुझमें और इसमें अन्तर क्या रहेगा ।
इस प्रकार जैसे-जैसे कष्ट आएँ वैसे-वैसे अपने में सहिष्णुता, उदारता और विवेकशीलता का विकास करके आसानी के क्षमा साधना को सिद्ध करना चाहिए ।
(ई) स्वकृतकर्मों का चिन्तन - कोई क्रोधादि द्वारा अपकार करे उस समय क्षमाशील साधक विचार कर कि इसमें इस बेचारे का क्या दोष है ? यह तो निमित्त मात्र है । वास्तव में यह मेरे ही पूर्वकृत कर्मों का फल है । मैंने पूर्वभवों में इसके साथ कोई दुर्व्यवहार किया होगा, उसी का यह बदला चुक रहा है । अगर इस समय बदला हँसते-हँसते शान्ति से क्षमा माँग कर या क्षमा करके चुका दूँगा, तो क्षमा मिल सकती है या थोड़े ही में उस कर्ज से छुटकारा मिल सकता है । अतः कर्मों के ऋण को चुका देना ही श्रेयस्कर है ।
अथवा कोई व्यक्ति सच्चे साधु को चोर, नीच, कुत्ता, चाण्डाल आदि अपशब्द कहता है, उस समय क्षमाशील साधु यह सोचे कि इस भव में नहीं तो पहले के भवों में मैंने यह कृत्य किये होंगे, अथवा कुत्ता या चाण्डाल आदि की अवस्थाएँ भी धारण की हैं। यह मुझे पूर्वभवों के कुकृत्य की याद