________________
२६४ : जैन तत्वकालका-द्वितीय कलिका
वस्तुतः धर्मदेव के तीनों पदों में साधु पद आधारभूत है। साधु से ही साधक, उपाध्याय और आचार्य पद तक पहुँचता है, यहाँ तक कि अरिहंत सिद्ध बनता है। इसीलिए शास्त्रों में साध को 'धर्मदेव' के नाम से अभिहित किया गया है। क्योंकि वे संसार-समुद्र में डूबते हुए प्राणियों के लिए द्वीप के समान आश्रय-स्थल हैं और जो उस समुद्र से पार होना चाहते हैं। उनके लिए प्रकाश स्तम्भ हैं।
इनके महत्व के कारण ही पंचपरमेष्ठी में इनकी गणना की गई है और इन्हें श्रद्धास्पद एवं पूज्य स्थान दिया गया है।