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२४८ : जैन तत्त्वकालका-द्वितीय कलिका
में भाग नहीं लेना, उनकी उपेक्षा करने का प्रयत्न करना उपेक्षा संयम है।
इसका एक अर्थ यह भी है जो धर्मद्वेषी हैं, धर्मभ्रष्ट हैं, कदाग्रही, कुबुद्धि, हठाग्रही एवं मिथ्यादृष्टि हैं, जो समझाने पर भी अपनी दुर्वृत्ति, पापवृत्ति या पापमय कृत्यों को छोड़ने को तैयार नहीं हैं, उनके प्रति उपेक्षा भाव रखना तथा उनका संसर्ग न करना भी उपेक्षा संयम है। .
__ (१३) प्रमार्जनासंयम-अप्रकाशित स्थान में तथा रात्रि के समय गमनागमन करना हो, या जिस स्थान पर बैठना, सोना या लेटना हो, उस स्थान को पहले यतनापूर्वक पूजणी या रजोहरण से प्रमार्जन करना प्रमार्जनासंयम है, क्योंकि प्रमार्जन करने से ही जीव-रक्षा भलीभांति हो सकती है। इसी प्रकार वस्त्र, पात्र या शरीर आदि पर किसी जीव के होने की आशंका हो, तो उसे पूजणी से प्रमार्जन कर लेना भी प्रमार्जनासंयम है ।
(१४) परिष्ठापनासंयम-मल, मूत्र, श्लेष्म, कफ, लीट, वमन, जठा पानी, अशुद्ध आहार, नख, केश आदि जो वस्तु परिष्ठापन करने (जमीन पर डालने) योग्य हों, उन्हें शुद्ध और निर्दोष (शास्त्रोक्त १० प्रकार के दोष से युक्त भूमि वजित करके) भूमि पर विवेक और यतनापूर्वक परिष्ठापन करना (गिराना), जिससे हरितकाय, धान्य, चींटी आदि जीवों की विराधना (हिंसा) या पुनः असंयम न हो, परिष्ठापनासंयम है।
(१५) मनःसंयम-मन को किसी जीव के या अपनी आत्मा के प्रतिकूल, हानिकारक, आरम्भ-समारम्भजनक अशुभ चिन्तन-मनन तथा आर्तरौद्रध्यान से रोक (बचा) कर सदैव प्रतिक्षण शुभ, प्रशस्त एवं समत्वयुक्त, सर्वजीव हितकारक, रागद्वेष रहित, आत्मकल्याणकारी प्रशस्त चिन्तन, मनन तथा धर्म-शुक्ल ध्यान में लगाना मनःसंयम है। ..
मन को निर्विचार, निर्विकल्प करने का प्रयत्न करना भी मनः संयम है।
(१६) वाक्संयम-वचन योग को वश में करना, मौन रखना, प्राणियों के लिए विघातक, पीडाकारी, अहितकर, हिंसोत्प्रेरक, कामोत्तेजक, अशुभअकुशल वचनों का निरोध करके प्रशस्त, मधुर, हित, मित, तथ्य-पथ्य एवं अहिसादि प्रेरक वचन बोलना वाक़संयम है।
(१७) कायसंयम-अप्रशस्त, अहित कर, गमनागमन तथा अंगों का आधुचन-प्रसारण तथा अन्य अकुशल-अशुभ कायचेष्टाओ से बचाकर काया