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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २४७
(४) वायुकायसंयम - चलाकर वायुकाय का उपयोग न करे, स्वयं स्वाभाविक बहती हुई हवा के उपयोग पर भी यथासंभव नियंत्रण रखे ।
(५) वनस्पतिकाय संयम - सचित्त वनस्पति का उपयोग सर्वथा न करे, अचित्त हुई वनस्पति के उपयोग पर संयम रखे ।
(६) द्वीन्द्रिय जीव संयम (७) त्रीन्द्रिय जीव संयम, (८) चतुरिन्द्रिय जीव संयम, (E) पंचेन्द्रिय जीव संयम ।
इन नौ प्रकार के जीवों की हिंसा समरम्भ ( मारने के भाव ), समारम्भ ( किसी प्राणी को पीड़ा देना) और आरम्भ ( प्राणों से वियुक्त कर देना) रूप मन-वचन काया से न स्वयं करे, न औरों से करावे और न ही हिंसा करने वालों की अनुमोदना करे ।
यह नौ प्रकार का संयम हुआ । इन नौ प्रकार के जीवों की रक्षा के लिए साधु-साध्वीगण प्रतिक्षण प्रयत्नशील रहें ।
(१०). अजीव काय संयम - जिस अजीव वस्तु के रखने से असंयम उत्पन्न होता है, संयम दूषित - कलंकित होता है, उन पदार्थों को न रखना अजीव काय संयम है । जैसे- सोना, मोती, रत्न, मणि, चांदी आदि धातु इत्यादि पदार्थों को रखने से साध का संयम दूषित होता है, अतः इनका सर्वथा परित्याग करना । धर्मपालन के लिए वस्त्र, पात्र, पुस्तक, रजोहरण, प्रमार्जनी आदि उपकरण रखे जाते हैं, उनको भी प्रमाणोपेत रखना, उनमें यथासंभव कमी करना, तथा जो भी उपकरण रखे जाएँ, अथवा पाट, चौकी, आदि जिन कल्पनीय वस्तुओं का उपयोग किया जाए, उनको यतनापूर्वक ग्रहण करना, उठाना और रखना, तथा यतनापूर्वक काम में लेना अजीवकाय सयम है | चूँकि सभी पदार्थ, आरम्भजनित होते हैं अतः उन्हें मुद्दत पूरी हुए बिना परिष्ठापन करना ( डालना या फेंकना) नहीं चाहिए; यही अजीव - कायसंयम का तात्पर्य है ।
(११) प्रेक्षासंयम - किसी भी वस्तु को पहले भलीभांति देखे-भाले बिना, निरीक्षण-परीक्षण किये बिना उसका उपयोग उपभोग नहीं करना तथा भोजन, गमनागमन, शयनादि क्रियाएँ आँखों से देखकर यतनापूर्वक करना प्रेक्षासंयम है । इससे प्राणियों की भी रक्षा होती है और विषैले प्राणियों से अपनी भी रक्षा होती है ।
(१२) उपेक्षासंयम-संयमबाह्य क्रियाओं अथवा साधुमर्यादा से बाह्य प्रवृत्तियों या सांसारिक प्रवृत्तियों या सावद्यकृत्यों, आरम्भजन्य कार्यों