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________________ २४६ : जैन तत्त्वकलिंका-द्वितीय कलिका प्रकारान्तर से साधु के २७ गुण कुछ प्रकरण ग्रन्थों में साधु के २७ गुणों का इस प्रकार उल्लेख किया गया है-(१-५) अहिंसा, सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रत, (६-११) पथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और सकाय-संयम, (१२-१६) श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह, चक्षरिन्द्रियनिग्रह, घ्राणेन्द्रियनिग्रह, जिह्व. न्द्रियनिग्रह और स्पर्शेन्द्रियनिग्रह, (१७) लोभनिग्रह, (१८) क्षमा, (१९) भावविशुद्धि, (३०) प्रतिलेखनाविशुद्धि, (२१-२२) संयम-योगयुक्ति, (२३) कुशल-मन-उदीरणा, अकुशलमनोनिरोध, (२४) कुशल वचन-उदीरणा, अकुशल वचननिरोध, (२५) कुशलकाय-उदीरणा, अकुशल-कायनिरोध, (२६) शीतादिपीड़ासहन और (२७) मारणान्तिक उपसर्ग सहन । वास्तव में ये २७ गुण पूर्वोक्त २७ गुणों में समाविष्ट हो जाते हैं। सत्रह प्रकार के संयम में दत्तचित्त मुनि साधु सत्रह प्रकार के संयम में दत्तचित्त रहता है, वह अहर्निश विवेकपूर्वक प्रत्येक प्रकार के संयमपालन के लिए सचेष्ट रहता है । संयम का अर्थ है-अपनी इच्छाओं, आवश्यकताओं, अपेक्षाओं, महत्त्वाकांक्षाओं, लालसाओं, तृष्णाओं और वासनाओं पर विवेकपूर्वक नियंत्रण रखना, उनसे निवत्त होने के लिए प्रयत्नशील रहना, उन्हें रोकना, उनसे उपरत-विरक्त रहना ।' सत्रह प्रकार के संयम इस प्रकार हैं ___ (१) पृथ्वीकायसंयम-सचित्त पृथ्वी के उपयोग से सर्वथा विरत होना और आवश्यकतावश अचित्त पथ्वी का उपयोग करना पड़े तो भी कम से कम करना, नियंत्रण रखना। (२) अप्कायसंयम–सचित्त जल का सर्वथा त्याग करना, अचित्त जल का उपयोग भी यतनापूर्वक एवं कम से कम करना । .. (३) तेजस्कायसंयम-अग्निकाय के किसी भी प्रकार के उपयोग से सर्वथा विरत होना। १ "सत्तरसविहे संजमे पण्णत्ते तं जहा पुढवीकायसंजमे, अपकायसंजमे, तेउकायसंजमे, वाउकायसंजमे, वण्णस्सइकायसंजमे, बेइंदियसंजमे, तेइंदियसंजमे, चउरिदियसंजमे, पंचिदियसजमे, अजीवकायसंजमे, पेहासंजम, उवेहासंजमे, पमज्जणासंजमे, परिठावणियासजमे, मणसंजमे, वइसंजमे, कायसेंजमे।" -समवायांग सूत्र, स्थान १७
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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