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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २४५
पालन करते हुए हो गये, या मैं तत्त्वज्ञान में पारंगत हूँ, फिर भी मुझे अभी तक कोई लब्धि, उपलब्धि या प्रसिद्धि प्राप्त नहीं हुई, किसी देव या तीर्थंकरदेव के दर्शन नहीं हुए, न किसी व्यक्ति ने स्वर्ग से आकर मुझे कुछ कहा, इसलिए मालूम होता है, मेरे तत्त्वज्ञान में कोई अतिशय या चमत्कार नहीं है, न ही कोई देव या तीर्थंकर आदि हैं या हुए हैं और न स्वर्गादि परलोक है, यह सब भ्रमजाल है। इस प्रकार का मिथ्यादर्शनयुक्त विचार कदापि न करना चाहिए; किन्तु सम्यक्त्व में दढ़ और निश्चल होना चाहिए, क्योंकि सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट होने पर समस्त ज्ञान एवं चारित्र दूषित, भ्रष्ट, शिथिल, एवं भ्रान्त हो जाते हैं।
___ अतः मुनि को इन २२ परीषहों में से किसी भी परीषह (कष्ट या वेदना) का प्रसंग उपस्थित होने पर शान्ति से समभावपूर्वक सहकर इन पर विजय प्राप्त करना चाहिए, इसी से साधुता दीप्त होती है। यह साधु का वेदना-समाध्यासना नामक २६वाँ गुण है।
. (२७) मारणान्तिक-समाध्यासना-मारणान्तिक कष्ट, आतंक या उपसर्ग आने पर भी अपने स्वीकृत साधुधर्म से, साधुवृत्ति से, व्रत नियमों से एवं सम्यग्दर्शनादि से कदापि विचलित एवं भयभीत न हो, बल्कि ऐसा विचार करे कि यह शरीर (जड़ शरीर) भले ही मरे, मैं कभी नहीं मरता, मैं (आत्मा). तो चेतन और अविनाशी हैं। इस शरीर को रक्षा तो धर्मपालन के लिए करनी है, अगर क्षमादि धर्म पालन करते-करते यह शरीर छूटता है, अथवा अतीव जीर्ण-शीर्ण-रोगाक्रान्त एवं धर्म पालन में अशक्त होने से छूटता है तो मुझे समाधिमरणपूर्वक इस शरीर को छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार मरणान्त कष्ट को समभाव से सहना साधु का २७वाँ गुण है ।
१ (क) बावीस परीसहा पण्णत्ता तं जहा
दिगिंछापरीसहे १, पिवासापरीसहे २, सीतपरीसहे ३, उसिणपरीसहे ४, दंसमसगपरीसहे ५, अचेलपरीसहे ६, अरइपरीसहे ७, इत्थीपरीसहे ८, चरियापरीसहे ६, निसीहियापरीसहे १०, सिज्जापरीसहे ११, अक्कोसपरीसहे १२, वहपरीसहे १३, जायणापरीसहे १४, अलाभपरीसहे १५, रोगपरीसहे १६, तणफासपरीसहे १७, जल्लपरीषहे १८, सक्कारपुरक्कारपरीसहे १६, पण्णापरीसहे २०, अण्णाणपरीसहे २१, दंसण (अदंसण) परीसहे २२ ।
-समवायांगसूत्र, स्थान २२ (ख) उत्तराध्ययन मूत्र, अ० २ परीषह प्रविभक्ति अध्ययन