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________________ २४४ : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका कठोरता अनुभव हो, शरीर में वेदना उत्पन्न हो तो उसमें मृदुशय्या-सवन जैसी समझकर प्रसन्नता रखनाः तथा चुभते तृणस्पर्श के दुःख से पीड़ित साधक प्रमाण से अधिक वस्त्रादि भी न रखे। (१८) जल्ल-परीषह-ग्रीष्मकाल में शरीर पर पसीना, मैल आदि होने से उस वेदना को समभावपूर्वक सहन करे, न ही उद्विग्न हो और न स्नानादि संस्कारों की इच्छा करे। (१९) सत्कार-पुरस्कार-परीषह-वस्त्रादि के दान से अथवा वन्दनानमस्कार से किसी ने सत्कार किया अथवा देखा-देखी या अन्य कारणवश किसी ने सम्मान किया तो गव न करना चाहिए। अथवा जय-जयकार वन्दनादि के द्वारा सत्कार मिलने पर प्रसन्न और न मिलने पर खिन्न न होना, सम्मान-अपमान में सम रहना। (२०) प्रज्ञा-परीषह'-प्रज्ञा अर्थात्-चमत्कारिणी बुद्धि होने पर गर्व न करना, वैसी बुद्धि न होने पर खिन्न न होना; किन्तु ज्ञानार्जन करने में सदैव पुरुषार्थ करना चाहिए। किसी प्रज्ञावान् साधु से बहुत-से साधु वाचना लेने या प्रश्न पूछने आएँ, उस समय झझलाकर वह ऐसा न सोचे कि इससे तो मैं मूर्ख रहता तो अच्छा था, ऐसी परेशानी तो नहीं उठानी पड़ती। ये सब प्रज्ञापरीषह के प्रकार हैं। (२१) अज्ञान-परीषह-ज्ञानावरणीयादि कर्मोदयवश यदि किसी साधु को बहुत परिश्रम करने पर भी ज्ञान प्राप्त न हो, स्मरण न रहे, समझ में न आये तो खिन्न न हो, अथवा कोई मूर्ख, बद्ध आदि कटु शब्द कहे तो भी समभाव से सहन करे ऐसा विचार न करे कि ज्ञान प्राप्ति के लिए इतना परिश्रम, तप-जप करने पर भी ज्ञान प्राप्त नहीं होता, मेरा जन्म व्यर्थ है, अपितु स्वस्थ चित्त से तपःकर्म, आचारशुद्धि, विनय आदि को धारण करके ज्ञानाराधना में तत्पर रहना चाहिए, ताकि ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय अथवा क्षयोपशम हो सके। (२२) अदर्शन-परीषह-मुनि को अपने सम्यग्दर्शन में दृढ़ रहना चाहिए । अन्य दर्शनों के अनुयायियों के वैभव-आडम्बर एवं प्रसिद्धि, उपलब्धि आदि को देखकर अपने सम्यग्दर्शन से या सूगृहीत तत्त्वों से विचलित नहीं होना चाहिए । यह भी विचार नहीं करना चाहिए कि मुझे इतने वर्ष संयम१ 'प्रज्ञा-स्वयंविमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदः मतिज्ञानविशेषभूतः ।' -समवायांग टीका
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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