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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २४३
(१२) आक्रोश - परीषह - किसी ग्राम या नगर में पहुँचने पर साधु की क्रिया, वेषभूषा आदि देखकर द्वेषवश या ईर्ष्यावश कोई अनभिज्ञ व्यक्ति आवेश में आकर उसे कठोर या अप्रिय वचन कहे अपशब्द कहे. गाली दे, निन्दा करे, मिथ्या दोषारोपण करे तो भी मुनि उसे शान्तिपूर्वक समभाव से सहे; उसके प्रति क्रोध न करे, न ही उसे भला बुरा कहे ।
(१३) वध - परीषह - आवेश में आकर कोई व्यक्ति साधु को मारे-पीटे, लाठी, डंडे आदि से प्रहार करे, तो भी उस पर रोष न करे, अपितु उस समय यह विचार करे कि यह व्यक्ति अज्ञानवश मेरे शरीर को भले ही मारेपीटे किन्तु मेरे आत्मा को कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकता। इस प्रकार समभाव से वध परीषद् को सहन करे ।
(१४) याचना - परीषह - आहार, औषध आदि की आवश्यकता होने पर, अनेक घरों से भिक्षा माँग कर लाने में मन में किसी प्रकार की लज्जा, ग्लानि, दीनता, अभिमान आदि का भाव न लाए कि 'मैं उच्चकुल का होकर कैसे भिक्षा माँगू ?' अपितु यह विचार करे, भिक्षावृत्ति साधु का कर्तव्य है । संयमयात्रा के निर्वाहार्थ प्रत्येक वस्तु को याचना द्वारा प्राप्त करना साधु का आचार है ।
(१५) अलाभ - परीषह - याचना करने पर भी यदि विधिपूर्वक अभीष्ट एवं कल्पनीय वस्तु की प्राप्ति न हो तो ऐसा विचार करे कि यदि आज नहीं मिली तो कोई बात नहीं । अनायास ही आज तप या त्याग का लाभ मिल गया । अन्तराय कर्म का क्षयोपशम हो जाने पर फिर वह पदार्थ उपलब्ध हो जायेगा। इस प्रकार अलाभ - परीषह सहन करे, किन्तु न मिलने पर उसके लिए शोक, चिन्ता, ग्लानि, खिन्नता या दीनता धारण न करे, न ही दीनता प्रगट करने वाले वचनों का प्रयोग करे ।
(१६) रोग परीषह - शरीर में किसी प्रकार की व्याधि उत्पन्न होने पर हाय-हाय न करे, न ही दीनतापूर्वक शब्द बोलकर दुःख प्रकट करे और न ही मन को मलिन करे । अपितु व्याकुल न होकर शान्ति से समभावपूर्वक रोग की वेदना सहन करे । उस समय ऐसा सोचे कि यह रोग मेरे ही किये
किसी अशुभ कर्मों का फल है । मैंने ही कर्म किये हैं तो उनका फल भी मुझे ही भोगना है । उस समय रोग को वेदना को समभावपूर्वक सहन कर लेने से कर्मों की निर्जरा ही जायेगी ।
(१७) तृणस्पर्श - संस्तारक आदि न होने पर या संलेखना - संथारे के समय या वैसे ही तण घास आदि पर शयन करने से उनकी तीक्ष्णता या