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२४२ : जैन तत्त्वकलिका - द्वितीय कलिका
मुझे कौन वस्त्र देगा, इस दृष्टि से शोक न करना, बल्कि वस्त्र रहित या अल्पतम वस्त्र होने की स्थिति को समभाव से सहना अचेल परीषह है ।
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(७) अरति - परीषह - अंगीकृत मार्ग में अनेक कठिनाइयों एवं असुविधाओं के कारण अरुचि, ग्लानि या चिन्ता न करना, बल्कि नरकतिर्यंचगति के दुःखों को सहने का स्मरण करके धैर्यपूर्वक उक्त परीषह को
सहन करना ।
(८) स्त्री- परीषह - पुरुष या स्त्री साधक का अपनी साधना में विजातीय के प्रति कामवासना या आकर्षण पैदा होने पर उसकी ओर न ललचाना, मन को दृढ़ रखना या कोई स्त्री पुरुष -साधक को अथवा कोई पुरुष स्त्री-साधिका को विषयभोग के लिए ललचाए तो मन को वहाँ से मोड़कर संयमरूपी आराम में रमण कराना, मन को कामविकार की ओर जरा भी न जाने देना ।
(६) चर्या - परीषह - एक जगह स्थायी रूप से निवास करने से मोह - ममत्व के बन्धन में पड़ जाने की आशंका है, इसलिए रुग्णता, अशक्तता, अतिवृद्धता आदि कारणों को छोड़कर नौकल्पी विहार करना; विहारचर्या में आने या होने वाले कष्टों को समभाव से सहना । अथवा पैदल चलने (पाद विहार करने) में होने वाले कष्टों को सहना भी चर्या परीषह है ।
(१०) निषद्या - परीषह - अकारण भ्रमण न करना, अपितु अपने स्थान पर ही वृद्ध या रुग्ण आदि की सेवा में दीर्घकाल तक रहना पड़े तो मन में खिन्नता न लाना, अथवा विहार करते हुए रास्ते में बैठने का स्थान ऊबड़खाबड़, प्रतिकूल, कंकरीला, वृक्षमूल, गिरिकन्दरा, एकान्त श्मशान या सूना मकान मिले उस समय कायोत्सर्ग करके या साधना के लिए आसन लगाकर बैठे हुए साधक पर अकस्मात् सिंह, व्याघ्र, सर्प, व्यन्तरदेव आदि का उपद्रव आ जाये तो उस आतंक या भय को अकम्पित भाव से जीतना, आसन से विचलित न होना ।
(११) शय्या - परीषह - शय्या का अर्थ आचारांगसूत्रानुसार 'वसति' है ।' साधु को कहीं एक रात रहना पड़े अथवा कहीं अधिक दिनों तक, तो वहाँ प्रिय या अप्रिय स्थान या उपाश्रय मिलने पर हर्ष - शोक न करना, अथवा कोमल-कठोर, ऊँची-नीची, ठण्डी-गर्म जैसी भी जगह मिले तो भी समभाव में रहना; खेद न करना i
१ वसति, उपाश्रय या स्थानक को कहते हैं ।