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साधु का सर्वागीण स्वरूप : २४१
इन पांचों प्रकार के चारित्रों में से यथासम्भव चारित्र की सम्यक् आराधना चारित्र सम्पन्नता है । यह गुण साधुजीवन का प्राण है ।
(२६) वेदना - समाध्यासना- किसी भी प्रकार की वेदना, पीड़ा, रोग, आतंक, विपत्ति या संकट आने पर साधु द्वारा समभाव से उसे सहन करना वेदना - समाध्यासना है ।
जैनशास्त्रों में साधक पर आने वाली वेदना के लिए दो पारिभाषिक शब्द हैं— उपसर्ग और परीषह ।
उपसर्ग साधक की साधना की कसौटी है । वे तीन प्रकार के होते हैंदेवकृत, मनुष्यकृत और तियंचकृत । इन तीनों प्रकार के उपसर्गों में से किसी भी प्रकार का उपसर्ग आने पर उसे समभाव से सहन करने पर साधक कसौटी पर खरा उतरता है ।
साधक को दूसरे प्रकार की वेदना परीषहों से होती है । अंगीकृत धर्म मार्ग में (च्युत न होने ) स्थिर रहने और कर्मबन्धन के क्षय करने के लिए जो (कष्ट) समभावपूर्वक सहन किये जाते हैं, उन्हें परीषह कहते हैं ।
समस्त परीषहों को शास्त्रकारों ने २२ संख्या में परिगणित कर दिया है । वे इस प्रकार हैं
(१-२) क्षुधा पिपासा - परीषह - भूख और प्यास की चाहे जितनी वेदना हो, अपनी साधुमर्यादा के अनुकूल आहार- पानी न मिलता हो, तो भी अंगीकृत मर्यादा के विपरीत सचित्त या दोषयुक्त आहार-पानी न लेते हुए इन वेदनाओं को समभावपूर्वक सहना ।
(३-४) शीत-उष्ण - परीषह - शीत ( ठण्ड ) अधिक पड़ने पर उससे बचने के लिए सदोष एवं अकल्पनीय तथा मर्यादा से अधिक वस्त्रादि का या अग्नि आदि का सेवन न करना, इसी प्रकार गर्मी से बचने के लिए हवा करने या स्नानादि की इच्छा न करना, बल्कि सर्दी-गर्मी की वेदना को समभाव से सहन करना ।
(५) दंश-मशक - परीषह - डांस, मच्छर, खटमल आदि जन्तुओं के उपद्रव से होने वाले कष्ट को खिन्न न होते हुए समभाव से सहन करना ।
(६) अचेल - परीषह - वस्त्र फट गये हों, अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हों, या वस्त्रों को चोर, डाकू, लुटेरों ने चुरा या छीन लिया हो, तो दीनता प्रकट करके वस्त्रों की याचना न करना । नवीन वस्त्र मिलेंगे, इससे हर्ष और अब