SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० : जैन तत्त्वकलिका-द्वितीय कलिका __ (२) छेदोपस्थापनीय चारित्र-नवदीक्षित साध-साध्वी को सामायिक चारित्र ग्रहण करने के जघन्य ७ दिन, मध्यम ३ मास और उत्कृष्ट ६ मास के पश्चात् प्रतिक्रमण भलीभांति सीख जाने पर पंचमहाव्रतरूप व्रतारोपण करने हेतु गुरुजनों द्वारा जो चारित्र 'दिया जाता है, उसे छेदोपस्थानीय चारित्र कहते हैं। वर्तमान युग की भाषा में इसे बड़ी दीक्षा कहा जाता है । इसमें पूर्व-पर्याय का व्यवच्छेद करके, उत्तरपर्याय का स्थापनमहाव्रतारोपण किया जाता है, इसलिए इसे छेदोपस्थानीय कहते हैं।' __(३) परिहार-विशुद्धि चारित्र-जिस चारित्र में दोषों का परिहार करके आत्म-विशुद्धि करने हेतु ६ मुनि सामूहिक रूप से गच्छ से पृथक होकर १८ मास पर्यन्त विशिष्ट तपश्चर्यादि की साधना करते हैं, उसे परिहार-विशुद्धि चारित्र कहते हैं। . . इसकी विधि इस प्रकार है-गच्छ से निर्गत ६ मुनियों में से प्रथम चार मुनि ६ मास पर्यन्त तप करते हैं, दूसरे चार मुनि उनकी सेवा (यावत्य) करते हैं, तथा एक मुनि धर्मकथादि क्रियाओं में संलग्न रहता है। जब प्रथम चार मनियों का तपःकर्म पूर्ण हो जाता है, तब दूसरे चार मुनि छह मास पर्यन्त तपःकर्म में संलग्न होते हैं और पहले के तपश्चर्या वाले चार मुनि उनकी सेवा में नियुक्त हो जाते हैं, किन्तु धर्मकथादि क्रियाओं में प्रथम मुनि ही काम करता रहता है। जब वे छह मास में तपःकर्म समाप्त कर लेते हैं, तब धर्मकथा करने वाला मुनि ६ मास तक तपस्या करने में संलग्न होता है, उन ८ मुनियों में से एक मुनि धर्मकथा के लिए नियुक्त किया जाता है, शेष ७ मुनि तपश्चरण करने वाले मुनि की सेवा में संलग्न होते हैं। इस प्रकार ६ मुनि १८ मास में परिहार-विशुद्धि साधना को पूर्ण करते हैं। (४) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र-जिसमें लोभकषाय को सूक्ष्म किया जाता है, उसका नाम सूक्ष्मसम्पराय चारित्र है । यह चारित्र उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी में पाया जाता है। उपशम श्रेणी दसवें गुणस्थान-पर्यन्त रहती है। (५) यथाख्यातचारित्र-जिस चारित्र में मोहकर्म उपशम-युक्त या क्षय होकर आत्मगुण प्रकट हो जाते हैं, उसे यथाख्यातचारित्र कहते हैं। १ प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के समय में ही छेदोपस्थानीय चारित्र होता है ।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy