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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २३६
चार ज्ञान, तो क्षयोपशम भाव के कारण विशदी भाव से प्रकट होते हैं, किन्तु केवलज्ञान केवल क्षायिकभाव के प्रयोग प्रकट होता है। अतः जिससे ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय या क्षयोपशम हो, उस प्रकार की प्रवृत्ति या पुरुषार्थ करना चाहिए, ताकि साधु में ज्ञानसम्पन्नता का गुण वृद्धिगत हो।
(२४) दर्शनसम्पन्नता-मिथ्यादर्शन से पराङ्मुख होकर आत्मा का सम्यग्दर्शन में आरूढ़ हो जाना तथा प्राप्त सम्यग्दर्शन को पुष्ट और स्थिर करना और अतिचारों से सम्यग्दर्शन की सुरक्षा करना, दर्शनसम्पन्नता है । साथ ही देव आदि का उपसर्ग आने पर भी सम्यक्त्व से चलित न हो और शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित निर्मल सम्यक्त्व का पालन करे।
___ यद्यपि सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन और मिश्रदर्शन, यों दर्शन तीन प्रकार का बताया गया है, तथापि यहाँ केवल सम्यग्दर्शन से सम्पन्न होना और मिथ्यादर्शन एवं मिश्रदर्शन को सम्यक प्रकार से जानने को हो दर्शनसम्पन्नता कहा गया है। .. (२५) चारित्रसम्पन्नता–जिससे कर्मों का चय (संचय) रिक्त (खाली) हो, उसका नाम चारित्र है। वह पाँच प्रकार हैं-- (१) सामायिक चारित्र, (२) छेदोपस्थापनीय चारित्र, (३) परिहारविशुद्धि चारित्र, (४) सूक्ष्मसाम्परायिक चारित्र और (५) यथाख्यात चारित्र ।
इन पांच प्रकार के चारित्रों में से यथाशक्ति स्वभूमिकानूसार गृहीत चारित्र की सम्यक आराधना-साधना करना, अतिचारों से चारित्र की सुरक्षा करना, विविध भावनाओं, अनुप्रेक्षाओं, तप, त्याग-प्रत्याख्यान, समिति गुप्तियों, महाव्रतों के पालन, परीषहजय, उपसर्ग-सहन, क्षमादि दस श्रमण धर्मों के आचरण आदि से चारित्र को सुदढ़ बनाना चारित्रसम्पन्नता है । जब आत्मासम्यग्दर्शनसम्पन्न होता है तो स्वयमेव ही सम्यक्चारित्र में पूर्णतया दढ़ हो जाता है। पाँच चारित्रों के लक्षण इस प्रकार हैं -
(१) सामायिक चारित्र-जिससे सावद्ययोग से निवृत्ति हो और ज्ञानदर्शन-चारित्ररूप समत्व का लाभ हो उसे सामायिक चारित्र कहते हैं। वह दो प्रकार का है--स्तोक कालिक और यावज्जीव पर्यन्त ।
____ मुनि का सामायिक चारित्र सर्वविरति और यावज्जीवन के लिए होता है, जबकि गृहस्थ श्रावक का सामायिक चारित्र स्तोककालिक और देश विरति (दो करण तीन योग से गृहीत) होता है।