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________________ साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २४६ को यतनापूर्वक समस्त क्रियाएँ या प्रवृत्तियाँ करने में लगाना कायसंयम है। ___ कायोत्सर्ग या ध्यानावस्था में कायचेष्टानिरोध भी कायसंयम का अंग है। कायोत्सर्ग एवं ध्यान से मन, वचन और काया तीनों के संयम की साधना भली भाँति हो सकती है। पूर्वोक्त १७ प्रकार के संयम की आराधना-साधना से मुनि अपने अन्तिम ध्येय-मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। प्रकारान्तर से १७ प्रकार का संयम हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पाँचों आस्रवों से विरति, पंचेन्द्रियनिग्रह, चार कषायविजय, तीन दण्डों से विरति, यों भी प्रकारान्तर से १७ प्रकार का संयम है।' श्रमणों के दस उत्तम धर्म • जिस क्षण से साधक गृहस्थाश्रम, घरबार, कुटुम्ब-परिवार, धन-धान्य, जमीन-जायदाद आदि सब छोड़कर श्रमण जीवन में प्रविष्ट होता है, तभी से उसके निजस्वभाव में दस प्रकार के उत्तम श्रमणधर्म का प्रवेश होना अनिवार्य है, अन्यथा उत्तम श्रमणधर्म-विहीन कोरे साधु-वेष या क्रियाकाण्ड से श्रमण का जीवन निःसार और निकृष्ट हो जाता है । अतएव आध्यात्मिक साधना में अहर्निश श्रम करने वाले सर्वसावधविरत-साधक श्रमण को क्षमा आदि दस धर्मों का उत्तम रूप से, शुद्धभाव से, प्रवंचनाभाव रहित होकर उचित श्रद्धा, प्ररूपणा के साथ आसेवन-पालन करना आवश्यक है । ___ श्रमण को इन दस उत्तम धर्मों को अपने जीवन का अनिवार्य अंग बना लेना चाहिए, क्योंकि दशविध श्रमणधर्म में मूल और उत्तर दोनों ही श्रमणगुणों का समावेश हो जाता है। जाता है। .. ____ आचार्य जिनदास ने आवश्यकचूणिरे में क्षमा आदि दसों धर्मों के पूर्व १ पंचाश्रवाद विरमणं पंचेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रय विरतिश्च संयमः सप्तदशविधः स्मृतः ॥ २ (क) उत्तमा खमा मद्दवं अज्जवं मुत्ती सोयं सच्चो संजमो तवो अकिंचणत्तणं बंभचेरमिति । -आवश्यकचूणि, आचार्य जिनदास महत्तर (ख) 'उत्तमः क्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-स्त्यागाकिंचन्य-ब्रह्मचर्याणि -तत्त्वार्थ सूत्र अ० ६ सू० ६ . धर्मः।
SR No.002475
Book TitleJain Tattva Kalika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1982
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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