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साधु का सर्वांगीण स्वरूप : २३७
वे बारह प्रतिमाएँ इस प्रकार हैं
(१) प्रथम प्रतिमा - एक दत्ति अन्न की और एक दत्ति पानी की लेना । इसकी अवधि एक मास है ।
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(२) द्वितीय प्रतिमा से सप्तम प्रतिमा तक — द्वितीय प्रतिमा में दो दत्त आहार की और दो दत्ति पानी की, इसी प्रकार तीसरी चौथी, पांचवीं, छठी, और सातवीं प्रतिमा में क्रमशः तीन, चार, पांच, छह और सात दत्ति अन्न की और उतनी ही पानी की ग्रहण करना ।
इनमें से प्रत्येक प्रतिमा का समय एक मास का है ।
( ८ ) आठवीं प्रतिमा सात अहोरात्र की होती है । इसमें एकान्तर चौविहार उपवास करना तथा गांव के बाहर उत्तानासन (आकाश की ओर मुंह करके लेटना), पावसन ( एक करवट से लेटना) या निषद्यासन (पैरों को बराबर करके बैठना ) से ध्यान लगाना एवं उपसर्ग आए तो शान्तचित्त से सहना आदि प्रक्रियाएँ हैं ।
(६) नौवीं प्रतिमा भी सात रात्रि की होती है । इसमें चौविहार बे-बेले पारणा करना, ग्राम से बाहर एकान्त स्थान में दण्डासन, लगुडासन अथवा उत्कटुकासन से ध्यान करना आदि प्रक्रियाएँ हैं ।
(१०) दसवीं 'प्रतिमा - यह भी सप्तरात्रि की होती है । इसमें चौविहार तेले-तेले पारणा करना, ग्राम के बाहर गोदुहासन, वीरासन या आम्रकुब्जासन से ध्यान करना आदि प्रक्रियाएँ हैं ।
(११) ग्यारहवीं प्रतिमा - यह प्रतिमा एक अहोरात्र यानी आठ पहर की होती है । चौविहार बेले के द्वारा इसकी साधना होती है । इसमें नगर के बाहर दोनों हाथों को घुटनों की ओर लम्बा करके दण्डायमान रूप में खड़े होकर कायोत्सर्ग किया जाता है ।
(१२) बारहवीं प्रतिमा - यह प्रतिमा एक रात्रि की होती है । इसकी आराधना केवल एक रात की है । इसमें चौविहार तेला करके गाँव के बाहर निर्जन स्थान में खड़े होकर मस्तक को थोड़ा-सा झुकाकर किसी एक पुद्गल पर दृष्टि रखकर निर्निमेष दृष्टि से निश्चलता पूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है । उपसर्गों के आने पर समभाव से सहन किया जाता है।
इस प्रकार करणसत्य नामक सोलहवाँ अनगार गुण है ।